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भगवान महावीरकी झाँकी
( लेखक-वा० जयभगवान जैन, बी० ए० वकील )
महावीर कौन था ? -
वह यहाँ हरदम तिलमिलाता रहता,-हरदम फड़महावीर कौन था? हमारे हीसमान इन्सानीसाँचे में ढला, फहाता रहता-जरा चैन नहीं। गोया वह अपने बन्धनों हाद मांसका बना एक पुतला-सात हाथ लम्बा करयल को तोड़, पिम्जरेकी तिल्लियोंसे निवल, कहीं और ही जामा कद पाला-देखने में तपे हुये सोनेके समान सुन्दर। चाहता हो, कही और ही रहना चाहता हो। वह यन्दी होते उसके माथेपे मुकुट, कानोंने कुण्डल, गले में ह.र, बगल भी सदा भीतर ही भीतर विधरता रहता-इस भववनके में पटका, भुजाओंमें पाजूबन्द, हाथोंमे कगण, तेडमे तागदी, कोने कोनेको दृढता रहता-इसकी ऊंचाई और नीचाईको और कटि पटकेदार धोती अपार शोभा देते । खुलानेमे इसके कुञ्जों और मरस्थलोको, इसके मार्गों और पगरिहयों वह वीर, महाचोर, सन्मति, वर्धमान नामोसे पुकारा जाता। को, इसकी लताओं और वृक्षोंको इसके फलों और फूलों बतलाने में वह काश्यप गोत्री, इच्चाकू बंशी, लछवि सत्रिय, को निहारता रहता गोया यह यहाँ किसी खोई हुई संपत्ति ज्ञातपुत्र, वैशालिक विशेषणोंसे विख्यात था। कुण्डमामका को पाना चाहता हो। राजा सिद्धार्थ उसका पिता और पशिष्टगोत्रा निशला
वह यहाँ जब अपने विचार-पंखोको खोलता, तो खूप उसकी माता थी । वैशालीका अधिपति चेटक उसका नाना. ही उदत्ता-ऊपर ही ऊपर-दूर ही दूर । १६ इन उदानों मथुराका राजा तिशय उसका पृपा था। मगधसम्राट मे बड़ी बड़ी घुलन्दियोंतो टाप जाता,--बड़ी बड़ी दूरियों बिम्बसार, दशार्णपति दशरथ, वस-नरेश उदयन, कौशाम्बी को लांघ जाता। वह जमीन-पास्मान, नरव-स्वर्ग लोकनृप शतानीक उसके मौसा ( उसके पिताके सा) थे। वह परलोक सब ही को नाप जाता । यह बातकी पातमें इन्हें हमी भृमण्डल में पैदा हुश्रा था---जम्बु महाद्वीपके भरत देश बनाने वाले जीप अजीव प्रादि सम्वोंको, इनमें रहने वाले मे-उसके बिहार प्रान्तके वजी गणराज्यके अन्तर्गत देव दानव, मनुष्य तिर्यञ्चोंको, इनमें वर्तने वाले शुभ-अशुभ कुण्डग्राममे-याजमे कोई २५४० वर्ष पूर्व ।
आदि भावांवो घाखामसे निकाल जाता--गोया बह इन करनेको तो इसी प्रकार उसका और भी बनान किया सबको जीत कर इनसे ऊपर उठना चाहता हो। जा सकता है, पर वास्तवमें यह सब कुछ बखान उसका वह ब्रहलोकका वासी थानही, उसके पश्चभूतोंसे बने शरीरका है-शरीरके नामों
वह इस लोक में रहता हुश्रा भी इस लोकका रहने और रूपांका है-शरीर-सम्बन्धी नातेदारोंका है, शरीरके घाला न था, यह किसी और ही लोकका रहने वाला थाजम्मकाल और क्षेत्रका है। यह सब कुछ बखान उसे बन्दी किसी से लोकया, जो यम लोक्से ऊपर है, पितृ लोकसे बनाने वाले यन्धनोका है। यह स्वयं तो इनमें से कुछ भी ऊपर है. ज्योतिष लोक्से ऊपर है. देवलोव से ऊपर हैन था। वह जो कुछ भी था, इन बन्धनोंके पीछे छुपा या। जहां ऊंच है न नीच, योग है न वियोग, रोग है न शोक रह एक दिव्य सुपर्ण था
व्यथा है न पीड़ा, जवानी है न बुढ़ापा, जन्म है न मरण, फिर वह कौन था? एक दिव्य सुपर्ण,-एक अलौकिक जहाँ सब तरफ समता है, शमता है, मधुरता है, सुन्दरता पक्षी-अनोखे स्वभाव वाला-अनूठे वृत्तान्त वाला- है, अमरता है, अानन्द है। वह वास्तवमें ब्रह्मलोकरा वासी रहा सचेत-बड़ा जागरूक-पर हार मांसके पिञ्जरेमें था। उसीके दृश्य उसकी प्रांखों में झलकते, उसीके राग यन्द एक लाचार बन्दी।
उसके कानों में झंकारते, उसीके भाव उसके दिल में छलकते।