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अनेकान्त
[वर्ष ५
(१२) "क्षितिसलिलदहनपवनारम्भं विफलं वनस्पतिच्छेदम सान्निवर्तनं कर्तव्यं काल नियमेन यावजीवं वा यथाशक्ति ।" सरणं सारणमपि च प्रमादचर्या प्रभाषन्ते ॥" "वतमभिसन्धिकृतो नियमः ।" --सर्वा० अ०० सू०२१,
-रत्नकरण्ड०८० यहाँ 'यानवाइन' आदि पदोंक द्वाग 'अनिष्ट' की व्या"प्रयोजनमन्तरेण वृक्षादिछेदन भूमिकुट्टन-मलिलसे चना- ख्या की गई है. शेष भोगापभोगपरिमाण व्रतमे अनिष्टके द्यबद्यकार्य प्रमादाचरितम् ।" -सर्वार्थ सि०अ०७ स०२१ निवर्तनका कथन मातभद्रका अनरण है । साथम
यहाँ 'प्रयोजनमन्तग्ण' यह पद 'विफल' पदका ममा- 'काला-यमेन' और 'यावजीव' जैसे पद समभद्रके नियम' नार्थक है, 'वृक्षादि' पद 'वनस्पति' के अाशयको लिये हुए।
और 'यम' के श्राशयको लिये हुए है, जिनका लक्षण रत्नहै, 'कुट्टन-सेचन' में 'प्रारम्भ के श्राशयका एक देश प्रकटी
करण्ड० श्रा० कं अगले पद्य (८७) में ही दिया हश्रा है । करण है और 'श्रादि अवद्यकार्य' मे 'दहन-यवनारम्भ' नया भौगोपभाग परिमाण व्रतके प्रसंगानुमार समन्तभद्र ने उक्त पद्यक 'मरण-सारण'का अाशय संगृहीत है ।
उत्तरार्धमे यह निर्देश किया था कि अयोग्य विषयमे ही (१३)"त्रसहनिपरिहरणार्थ क्षौद्र पिशितं प्रमादपरिहतये। नही किन्तु योग्य विषयसे भी जो अभिसन्धिकृता विरान हाती मयच वजनीयं निजचरणौ शरणमुपयातः॥" है वह व्रत कहलाती है । पृज्यपादने इम निर्देशमे प्रमंगापान
-रलकरण्ड० ८४ विषयायोग्यात्' पदोको निकाल कर उसे व्रतके साधारण "मधु मांसं मद्यं च सदा परिहर्त्तव्यं प्रमघातानिवृत्त लक्षणके रूपमे ग्रहण किया है, और इससे उस लक्षणको चेतसा।
-सर्वार्थसि०अ०७ सू०२१ प्रकृत अध्याय (नं०७) के प्रथम सत्रकी व्यारण्यामे दिया है। यहाँ 'त्रमघातानिवृत्तचेतमा' ये शब्द 'त्रसहनिपरिहर- (१६) “आहरोषधयोरयुपकरशावास्योश्च दानेन । णार्थ' पदके स्पष्ट श्राशयको लिये हुए हैं और मधु, मार्म वैय्यावृत्यं ब्रुवते चतुगत्मत्वेन चतुरस्राः॥" परिवर्तव्यं पद क्रमश: क्षौद्रं, पिशितं,वर्जनीयं के पर्यायपद है।
-रत्नकरण्ड० ११७ (१४)"अल्पफलबहुविघातान्मुलकमााणि शृंगवेराणि "स(अतिथिसंविभागः) चतुर्विधः--भिक्षोपकरणौषधनवनीत-निम्बकुसुमं कैतमित्येवमवहेयम ।।" प्रतिश्रयभेदात् ।" --सर्वार्थ सि० अ०७ सृ० २१
-रत्नकरण्ड० ८५ यहा पृज्यपादने समन्तभद्र-प्रतिदिन दानके चागे भेदो "केतस्यर्जुनपुष्पादीनि श्रृंगवेरमूलकादीनि बहुजन्तुयोनि- को अपनाया है। उनके 'भिक्षा' और 'प्रतिश्रय' शब्द क्रमश: स्थानान्यनन्तकायव्यपदेशार्हाणि परिहर्तव्यानि वहुधाताल्प- 'आहार' और 'श्रावास' के लिये प्रयुक्त हुए हैं। फलत्वात् ।” _ --सर्वार्थ सि० अ०७ सू० २१ इस प्रकार ये तुलनाके कुछ नमूने है जो श्री पूज्यपादकी
यहाँ 'बहुधानाल्पफलत्यात्' पद 'अल्पफल बहुविघातात्' 'मर्वार्थमिद्धि' पर स्वामी समन्तभद्र के प्रभावको-नके माहित्य पदका शब्दानुसरणके साथ समानार्थक है, 'परिहर्तव्यानि की छापको-स्पष्टतया बतला रहे हैं और द्वितीय माधनको पद 'हेयं' के श्राशयको लिये हार है और 'बहुजन्तुयोनि- दुषित टहग रहे हैं। ऐमी हालतमे मित्रवर पं० सुखलालस्थानानि' जैसे दो पद स्पष्टीकरण के रूपमे है ।
पमहा
जीका यह कथन कि. 'ज्यपादने समन्तभद्रकी श्रमाधारण (१५) "यदनिष्टं तदत्रतयेद्यच्चानुपसेव्यमेतदपि जह्यान। कृतियोका किमी अंशमे स्पर्श भी नहीं किया बड़ा ही अभिसन्धिकृता विरतिविषयायोग्यावतं भवति॥" आश्चर्यजनक जान पड़ता है और किसी तरह भी मंगत
-रत्नकरण्ड०८६ मालूम नही होता। आशा है पं० सुग्वलालजी उक्त तुलनाकी "यानवाहनाभरणादिष्वेतावदेवेष्टमतोऽन्यदनिष्टमित्यनि- गेश नीमे इस विषय पर फिरसे विचार करनेकी कृरा करेंगे। भूलसुधार-पउमचरियका अन्तःपरीक्षण' नामक लेखके पृष्ट ३४२ कालम १ का कुछ मैटर गलतीसे पृ. ३४३ पर
छप गया है। अत: पाठक पृष्ठ ३४२ के प्रथम काजममे नं० २ वाले मैटरके बाद और '( ख ) श्वेताम्बरीय सम्बन्धी--उपशीर्षकसे पहले उन तीन नन्बरोंके मैटरको पढ़नेकी कृपा करे जो पृ. ३.४३ पर शुरूमें ही नं. ३, ४, ५ के साथ दर्ज है, और इसकी सूचना मी उक्त उपशीर्षकके पूर्वकी पंक्ति मे बना लेवे।-प्रकाशक