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________________ किरण १०-११] सर्वार्थसिद्धि पर ममन्तभद्रका प्रभाव ३५१ (७) "नयास्तवेष्टा गुणमुख्यकल्पतः ॥ ६२ ॥” "अभावस्य भावान्तरत्वाद्धेन्वनचादिरभावस्य वस्तुधर्म -स्वयम्भूस्तोत्र स्वसिद्धेश्वर -सर्वार्थसिद्धि, प्र. १ सू० २७ "निरपेक्षा नया मिथ्याः सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत।" इस वाक्यमे पूजा पादने, अभावके वस्तुधर्मत्वकी मद्धि -श्राप्तमीमांमा, का० १०८ बतलाते हुए, समन्तभद्रके युक्त्यनुशाम्न-गत उक्त वाक्यका "मिथोऽनपेक्षाः पुरुषार्थहेतु शब्दानुमरण के साथ कितना अधिक अनुकरण किया है, नशा न चांशी पृथगस्ति तभ्यः । यह बात दोनों वाक्यांको पहले ही स्पष्ट हाजाती है। इनम परम्परेक्षाः पुरुपार्थहेतुईष्टा नयास्तद्वदसिक्रियायाम ॥" हत्वगन और वस्तुव्यवस्थाङ्ग शब्द ममानार्थक हैं। यत्यनशासन, का0 (E)"धनधान्यादि-ग्रन्थं परिमाय ततोऽधिकेपुनिस्पृहता "त एते (नया:) गुण-प्रधानतया परस्परतत्राः सम्य- परिमितपरिग्रहः स्यादिच्छापरिमाणनामाsपि॥" ग्दर्शनहेतवः पुरुषार्थीक्रयासाधनसामर्थ्यात् तन्वादय इव रत्नकरण्ड० श्रा०६१ यथोपायं निनिवेश्यमानाः पटादिसंज्ञाः स्वतंग्राश्चासमर्थाः। " ____ "धन-धान्य-क्षेत्रादीनामिच्छावशात् कृत्परिछेदो निरपेचेषु तस्वादिपु पटादिकार्य नास्तीति।" गृहीति यंचमाणुनतम् ।' -सर्वार्थ सिद्धि, १०. सू०२० -पर्वार्थसिद्धि, अ० १ सू० ३३ यहाँ 'इच्छावशात् कृतपरिच्छेद:' ये शब्द 'परिमाय यहा इच्छावश म्वामी समन्तभद्र ने अपने उक्त वाक्यांम नयांक मुख्य तताऽधिकेषु निस्पृहना' के श्राशय को लिये हुए हैं। और गुण (गौण) ऐसे दो भेद बतलाये हैं, निरपेक्ष नयोको (१०) “तियकक्लेशवणिज्याहिमारम्भप्रलम्भनादीनाम। मिथ्या तथा सापेक्ष नयाँको वस्तु वास्तविक (सम्यक् ) कथाप्रसङ्गप्रमवः स्मर्तव्यः पापउपदेशः॥" प्रतिसादत किया है और मापेक्ष नयोको 'अर्थकृत्' लिख -रत्नकरण्ड०७६ कर फलत: निरपेक्ष नयाको 'नार्थकृत्' अथवा कार्याशक्त "तिर्यकक्लेशवाणिज्यप्राणिवधकारम्भकादिपु पापसंयुक्तं (असमय) मूचित किया है। साथ ही, यह भी बतलाया है वचनं पापोपदेशः।" -सर्वार्थ सि० अ०७ सू०२५ कि जिस प्रकार परस्पर अनपेक्ष अंश पुरुषार्थ के हेतु नही, २१ वे सूत्र ('दिग्देशानर्थदण्ड') की व्याख्याम किन्तु परस्पर मापेक्ष अश परुषार्थ के हेतु देखे जाने हैं और अनर्थदरावत के समन्तभद्रप्रतिपादित पाचो भेदोको अपनाते अंशोस अशी पृथक् (भिन्न अथवा स्वतंत्र) नहीं होता । उनी हुए उनके जो लक्षण दिये हैं उनमे शब्द और अर्थका प्रकार नयाको जानना चाहिये । इन सब बातीको सामने रख कितना अधिक माम्य है यह इम नुलना तथा अागेकी दो कर ही पूज्याप दने अपनी सर्वार्थीमद्धिकं उक्त घापकी सृष्टि की तुलनाश्रोमे प्रकट है । यहाँ 'प्राणिवध' हिमाका समानार्थक जान पड़ता है। इस वाक्यम अंश-अंशीकी बानको तन्वादि- है और 'श्रादि' म 'प्रलम्भन'मागभित है। पटादिसे उदाहृत करके रक्खा है। इसके गुणप्रधानतया', (११) "वध-बन्धच्छेदादे पादागाच परकलत्रादेः। परस्सरतत्राः', 'पुरुषार्थ क्रियासाधनमामात्' और 'स्वतंत्राः' आध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदाः।" पद क्रमशः गुणमुख्य कल्यतः' परस्परेक्षा:-सापेक्षाः' 'पुरुषार्थ -रत्नकरण्ड०७० हेतुः, निरपेक्षा: अनपेक्षाः' पदोके ममानार्थक हैं। और "परेषां जयपराजयवधवन्धनाङ्ग छेदपरस्वहरणादि कथं 'असमर्थाः' तथा 'कार्य नास्ति' ये पद 'अर्थकृत' के विपरीत स्यादिति मनसा चिन्तनमपध्यानम्" 'नार्थकृत्' के आशयको लिये हुए हैं। -सर्वार्थसि०अ०स०२१ (८) "भवत्यभावोऽपि च वस्तुधों यहाँ 'कथं म्यादिति मनमा चिन्तनम' यह 'पाध्यानम्' भावान्तरं भाववदहतस्ते पदकी व्याख्या है, परेषा जय-पराजय' तथा पर स्वहरण' प्रमीयते च व्यपदिश्यते च यह 'आदि' शब्द-द्वारा गृहीत अर्थका कुछ प्रकटीकरण हे वस्तुव्यवस्थाङ्गममेयमन्यन ॥" और परस्वहरणादि' मे 'परकल त्रादि' का अपहरण भी -युक्त्यनुशासन, का०५६ शामिल है।
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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