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अनेकान्त
[वर्ष ५
स्वयम्भूस्तोत्रके 'अविवक्षो न निगमकः' शब्दोंके द्वारा भी (५) "द्रव्यपर्याययोरैक्यं तयोरव्यतिरेकतः। सूचित किया गया है, उमीको पूज्यपादने 'सतोऽप्यविक्षा परिणामविशेषाञ्च शक्तिमच्छक्तिभावतः।। भवतीति' इन शब्दोंमें संग्रहीत किया है । इस तरह अर्पित संज्ञा-संख्या-विशेषाश्च स्वलक्षणविशेषतः।
और अर्पित की व्याख्याने समन्तभद्रका पूग अनुसरण प्रयोजनादिभेदाच्च तन्नानात्वं न सर्वथा ।" किया गया है।
-आप्तमीमांसा, का०७१,७२. (४) "न द्रव्यपर्यायपृथग्व्यवस्था
"यद्यपि कथंचिद् व्यदेपशादिभेद हेतुवापेक्षया द्रव्यादन्ये द्वैयात्म्यमेकार्पणया विरुद्धम् ।
(गुणाः), तथापि तदव्यतिरेकात्तत्परिणामाश्च नान्ये ।" धर्मी च धर्मश्च मिस्त्रिधेमौ
-सर्वार्थ सिद्धि, अ. ५ सू० ४२ न सर्वथा तेऽभिमतौ विरुद्धौ।"
यहाँ द्रव्य और गुणो (पर्यायों) का अन्यत्य तथा अन-युक्त्यनुशासन, का०४७ न्यत्व बतलाते हुए. प्रा० पृज्यपादने स्वामी समन्तभद्रकी "न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात। उक्त दोनों ही कारिका के श्राशयको अपनाया है और व्येत्युदेति विशेषात्ते सहकत्रोदयादि सत् ।।" ऐमा करत हुए उ. के वाक्य मे कितना ही शब्द-साम्य भी
-आप्तमीमांसा, का० ५७ अागया है, जैसा कि 'तदव्यतिरेकात्' और 'परिणामाच' "ननु इदमेव विरुद्धं तदेव नित्यं तदेवानित्यमिति। पदोक प्रयोगसे प्रकट है। इसके सिवाय, 'कचित्' शब्द यदि नित्यं व्ययोदयाभावादनियताव्याघात: । श्रथानियत्व- 'न सर्वथा' का, 'द्रव्यादन्य' पद 'नानात्व' का. 'नान्य' शब्द मेव स्थित्यभावान्नित्यताव्याघात इति । नैतद्विरुद्धम्। 'ऐक्य' का, 'व्यपदेश' शब्द मंजा' का वाचक है तथा कुत:?(उत्थानिवा) अर्पितानर्पितसिद्धर्नास्ति विरोधः। 'भेदहेत्वपक्षया' पद भेदात्' 'विशेषात्' पदांका समानार्थक तद्यथा-एकस्य देवदत्तस्य पिता, पुत्रो, भ्राता, भागिनेय है और 'आदि' शब्द संज्ञासे भिन्न शेष संख्या-लक्षण - इत्येवमादयः सम्बन्धा जनकत्व जन्यत्वादिनिमित्ता न विरु- प्रयोजनादि भेदोका संग्राहक है । इस तरह शब्द और अर्थदुधन्ते अर्पणाभेदात् । पुत्रापक्षेया पिता, पित्रपक्षेया पुत्र दोनोका साध्य पाया जाता है। इत्येवमादिः । तथा द्रव्यमपि सामान्यार्पण या नित्यं, विशेषा- (६) "उपेक्षा फलमाद्यस्य शेषम्यादानहानधीः । पणयाऽनित्यमिति नास्ति विरोधः।"
पूर्वा वाऽज्ञाननाशो वा सर्वस्यास्य म्वगोचरे ।।" -सर्वार्थसि. अ. सू० ३२
-आप्तमीमांसा १०० यहा पूज्यपादने एक ही वस्तुमे उत्पाद-व्ययादिकी दृष्टि से
"शस्वभावस्यात्मनः कर्ममलीमसस्य करणालम्बनादर्थ नित्य-अनित्यके विरोधकी शंका उठाकर उसका जो परिहार निश्चये प्रीतिरुपजायते. सा फल मित्युच्यते । उपेक्षा प्रज्ञानकिया है वह सब युक्त्यनुशासन और प्राप्तमीमामाकी उक्त नाशो वा फलम् । रागद्वेषयोरप्रणिधानमुपेक्षा अन्धकारदोनो कारिकाश्रोके श्राशयको लिये हुए है-उसे ही पिता- पाज्ञाननाशो वा फल मित्युच्यते।" पुत्रादिके सम्बन्धो-द्वारा उदाहृत किया गया है। श्राप्तमी
-सर्वार्थसिद्धि, अ० १ सू० १० मामाकी उक्त कारिकाके पूर्वार्ध तथा तृतीय चरणमे कही यहाँ इन्द्रियोके पालम्बनसे अर्थके निश्चयमे जो प्रीति गई निल्यता-अनित्यता-विषयक बातको 'द्रव्यमपि सामान्या- उत्पन्न होती है उसे प्रमाण ज्ञानका फल बतलाकर 'उपेक्षा पणया नित्यं, विशेषापणय नित्यभिति' इन शब्दोमे फलि- अजाननाशो वा फलम्' यह वाक्य दिया है, जो स्पष्टतया तार्थ रूपसे रक्खा गया है। और युक्त्यनुशासनकी उक्त- प्राप्तमीमासाकी उक्त कारिकाका एक अवतरण जान पड़ता कारिकामे 'एकार्पणासे.'-एक ही अपेक्षाम-विरोध बतला है और इसके द्वाग प्रमाणफल-विषयमे दूसरे प्राचार्यके
जो यह सुझाया था कि अपणाभेद से विरोध नही मतको उद्धृत किया गया है। कारिकामे पड़ा हुअा 'पूर्वा' अाता उसे 'न विरुध्यन्ने अर्पणाभेदात्' जैसे शब्दो द्वारा पद भी उसी 'उपेक्षा' फलके लिये प्रयुक्त हुआ है जिससे प्रदर्शित किया गया है।
कारिकाका प्रारम्भ है।