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सर्वार्थसिद्धिपर समन्तभद्रका प्रभाव
किरण १०-११ ]
कि मजही यह जानसकेंगे कि ग्रा० पूज्यपादस्वा०ने समन्नभद्र के प्रतिपादित अर्थको कही शब्दानुसरणके, कही पदानुसरणके, कही वाक्यानुसरण के, वही अर्थानुमरक कही भावानुसरण, कहीं उदाहरणके, वही पर्यायशब्दप्रयोग के, कही 'आदि' जैसे संग्रादादयोग और कहीं उपाख्यान- विवेचनादिके रूपमें पूर्णतः श्रश्रवा अशतः अपनाया है— ग्रहण किया है। तुलनामे स्वामी समन्तभद्र के चाक्योंको ऊपर और श्री पूज्यादके वाक्योंको नीचे भिन्न टाइम रख दिया गया है, और साथमं यथावश्यक अपनी कुछ व्याख्या भी दे दी गई है, जिससे साधारण पाठक भी इस विषयको ठीक तौरपर अवगत कर सके (१) "नित्यं तत्प्रत्यभिज्ञाना• नाकस्मानदविच्छिा । क्षणिकं फालभेदात्ते बुद्धयचरदोषतः || ” - श्राप्तमीमासा, का० ५६ " नित्यं तदेवेदमिति प्रतीतेर्न नित्यमन्यत्प्रतिपत्तिसिद्धेः ।” - स्वयम्भू स्तोत्र, का० ४३ "तदेवेदमिति स्मरणं प्रत्यभिज्ञानम् । तदकस्मान्न भवतीति योऽस्य हेतुः स तद्भावः । येनात्मना प्राग्दृष्टं वस्तु तेनैवात्मना पुनरपि भावात्तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञायते । ... ततस्तद्भावेनाऽव्ययं नित्यमिति निश्चीयते । तत्तु कथचिद्वेदितव्यम् ।" - सर्वार्थसिद्धि, प्र० ५ सू० ३१ यहाँ पूज्य गदने समन्तभद्र के 'तदेवेदमिति' इस प्र भिज्ञानलक्षणको ज्योका त्या अपनाकर इसकी व्याख्या की है, 'नाक स्मात्' शब्दीको 'अकस्मान्न भवति' रूपमं रक्खा है, 'तदविच्छिदा' के लिये सूत्रानुसार 'तद्भावेनाऽव्यय' शब्दोका प्रयोग किया है और 'प्रत्यभिज्ञान' शब्दको ज्योंका त्यो रहने दिया है। साथ ही 'न नित्यमन्यत्प्रतिपत्तिमिद्धेः' 'क्षणिकं कालभेदात्' इन वाक्योंके भावको तत्तु कथंचिद् वेदितव्यं' इन शब्दों के द्वारा संगृहीत और सूचित किया है । (२) "नित्यत्वैकान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते । " - श्राप्तमीमांसा, का० ३७ “भावेषु नित्येषु विकार हानेर्न कारकव्यापृतकार्य युक्तिः । न बन्धभोगो न च तद्विमोक्षः - युक्त्यनुशासन, का०८ "न सर्वथा नित्यमुदेत्यपैति न च क्रियाकारकमंत्र युक्तम" स्वयम्भूस्तोत्र २४
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"सर्वथा नित्यत्वे श्रन्ययाभावाभावात् संसारत निवृत्ति. कारणप्रक्रियाविरोधः स्यात् ।”
- सर्वार्थसिद्धि, अ० १ सू० ३१ यहाँ पूज्यपादयत्कान्तपक्षे' पदके लिये समन्तभद्रके ही श्रभिमतानुसार 'सर्वथा नित्यत्वे' इस समानार्थक पदका प्रयोग किया है, 'विक्रिया नोपपद्यते' और 'विकारहाने के प्राशयको 'अन्यथाभावाभावात्' पदके द्वारा व्यक्त किया है और शेषका समावेश 'संसार-ननिवृत्तिकारणप्रक्रियाावरोधः स्यात्' इन शब्द में किया है।
(३) "विवक्षतो मुख्य इतीप्यतेऽन्यो गुणोऽविवक्षो न निरात्मकस्ते ।" -स्वयंभूस्तोत्र ५३ "विवक्षा चाऽविवक्षा च विशेष्येऽनन्नधर्मिणि । eat विशेषणस्याऽत्र नाऽसतस्तैस्तद् थिभिः ॥" -मीमांसा, का० ३५ "अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनः प्रयोजनवशाद्यस्य कस्यचिद्धर्मस्य विवक्षया प्रापितं प्राधान्यमर्पितमुपनीतमति यावत् । तद्विपरी मर्नार्पितम् प्रयोजनाभावात् । सतोऽयविवक्षा भवतीत्युपसर्जनीभूतमनर्पितमुच्यते ।" - सर्वार्थसिद्धि, अ० ५ सू० ३२ या 'अति' और 'श्रर्नापित' शब्दोवी व्याख्या करते भद्रको 'मुख्य' और 'गुण (गोरा)' शब्दोंकी व्याख्याको अर्थत: अपनाया गया है। 'मुख्य' के लिये प्राधान्य' 'गुण' के लिये 'उपसर्जनं'भूत' 'विवक्षित' के 'लिये विवक्षया प्राप्ति' और 'श्रन्यो गुण:' के लिये 'तद्वि परीतमनप्रितम' जैसे शब्द का प्रयोग किया गया है। साथ ही 'अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनः प्रयोजनवशाद्यस्य कस्यचिद्धमंस्य' ये शब्द 'विवक्षित' के स्पष्टीकरणका लिये हुए है— श्राप्तमीमासाकी उक्त कारिकामे जिस श्रनन्तधर्मिविशेष्यका उल्लेख है और युक्त्यानुशासनकी ४६ वी कारिकामें जिसे 'तत्वं वनेकान्तमशेषरूपम्' शब्दोंमें उल्लेखित किया है उसीको पूज्यपादने 'श्रनेकान्तात्मकवस्तु' के रूपमें यहा ग्रहण किया है। और उनका 'धर्मस्य' पद भी समन्तभद्र के 'विशेषणस्य' पदका स्थानापन्न है। इसके सिवाय, दुमरी महत्वकी बात यह है कि श्राप्तममामाकी उक्त कारिकामे जो यह नियम दिया गया है कि विवक्षा और अविवक्षा दोनों ही सत् विशेषणकी होती है- श्रमतूकी नहीं जिसको