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________________ ३५८ अनेकान्त वर्ष ५ किन्तु वह गती अपने धर्मसे विचलित नही हुई। हठात् थे। राजकुमार अभय, शतवाहन श्रादि मुनिधर्ममें लीन हसने एक व्यापारीके हाथ उसको बेच दिया। उसने भी हुए थे । ज्येष्टा, चन्दना पदृश राजकुमारियां भी आर्थि। निराश होकर कोशाम्बी में कुल रुपये ले कर चन्दनाको वृष- हुई थीं। राजगृहके मेट शालिभद्र, धन्यकुमार, प्रीतं र भसेन नामक सेठ के हवाले कर दिया । सती स्त्रियोंको अपने श्रादि महानुभाव वणिकॉमेग्मे परमपुरुषार्थके अभ्यासी हुग मनीत्वकी रक्षा के हेतु अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं और यह थे। अन्तमे धर्मप्रचार करते हुए भगवान पावापुर पहुंचे उनकी सच्चाईकी परीक्षा है। आपत्ति पड़ने पर भी धर्म और वहीमे उन्होंने मोक्षलाभ किया था। पावापुरके पालना सच्चा धर्म है। चन्दनाके मतावका उदाहरण मनोहर बनम अनेक सरोवरोंके मध्य महामणियोंकी शिला अनुकरणीय है। पर विराजमान हुए बिहार छोड कर निर्जराको बढ़ाते हुए __ दयालु सेठ वृषभमेनने चन्दनाको बड़े प्रेम घरमे वे दो दिन तक वहां विराजमान रहे और जब चौथे कालके रहने दिया। चन्दना मेठानीके गृहकार्यमें पूर्ण सहायता तीन वर्ष ८॥ महीना बाकी रह गये थे, कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी देती थी, जो कि स्वामिभक्ति व कर्तव्य-परायणतावा एक की रात्रिके अन्तिम समयमै (चार बजे) स्वाति नक्षत्र में तीसरे श्रादर्श उदाहरण है। चन्दनाके अपूर्व रूप-लावण्यने सेठानी शुक्लध्यानमे तत्पर हुए। तदनन्तर उन्होंने तीनो योगका के हृदयमै डाह उत्पन्न कर दिया और वह चन्दनाको मन- निरोध कर समुच्छिन्नक्रिया नामके चौथे शुक्लध्यानका माने कष्ट देने लगी। उधर चन्दनाके भी कष्टोका अन्त श्राश्रय लिया और चारो अघानिया कोंको नाश कर शरीरश्रागया। भगवान महावीरका शुभागमन कोशाम्बीमे हुअा। रहित केवलगुणरूप होकर एक हजार मुनियोंके साथ सब दुखिया चन्दनाने उनको आहार दान देनेकी हिन्मत की। के द्वारा वांछनीय ऐमा मोक्ष पद प्राप्त किया। पतितपावन प्रभुका श्राहार चन्दगाके यहां हो गया। मन्य भगवानके इस अंतिम दिव्य श्रवरपरके समय भी स्वर्गहै भगवानको भक्त प्यारा है। लोग श्राश्चर्यमे पड गये. लोकके इन्द्र और देवतागण पाये थे और उन्होंने मोहका चन्दनाका नाम चागे पोर प्रसिद्ध हो गया। भगवानके नाश करने वाले भगवानके शरी की पूजा-बंदना की भक्तवत्सल होनेका यह एक ज्वलन उदाहरण है। कोशा- थी । नेवोने उस पवित्र शरीरको अग्निकुमार देवोक ग्बी नरेशकी पट्टगनीने जब यह समाचार सुने तो वह इन्द्र के मुकुटये प्रगट हुई अग्निकी शिग्वाम स्थापन क्यिा अपनी छोटी बहनको बडे श्रादर व प्रेममे राजमहलमे ले था। इसी अवसरपर ग्राम पामके गजा लोग पावापुर पहचे श्राई, किंतु वह वहां अधिक दिन न ठहर सकी। भगवान और वहां पर दीपोत्सव मनाया। कल्पसूत्रम इसका उल्लेख महावीरके दिव्य एवं पवित्र चरित्रका प्रभाव उसके हृदय इस प्रकार किया गया है :-- पर अंकित हो गया। वैराग्यकी घट्ट धारामे वह गोने 'उस पवित्र दिवस जब पृजनीय श्रमण महावीर सर्व लगाने लगी और शीघ्र ही वीरनाथके पास पहुंच कर मांगारिक दुःखामे मुक्त हो गये ना काशी और कौशलके उसने जिन दीक्षा ले ली। १८ गजायाने १ मल्ल राजायाने, और लिछवि राजाश्री __ मगध देशके गजा श्रेणिक भगवानके अनन्य भन थे ने दीपोत्सव मनाया था। यह प्रोषधका दिन था और उन्होंने और उन्हीकी राजधानी राजगृहम भगवानने अधिक समय कहा ज्ञानमय प्रकाश तो लुप्त हो चुका है, प्राओ भौतिक व्यतीत किया था। जिस समय भगवान सर्वप्रथम राजगृह प्रकाशये जगतको दैदीप्यमान बनाये।" आये थे उस समय वेदपारंगत विद्वान इन्द्रभूति गौतम इस प्रकार इस दिव्य अवसरके अनुरूप अाज तक यह उनके साथ थे जो कि भगवानके प्रमुख गणधर थे। इनके दीपोत्सवका न्योहार याने दीपमालिका अथवा दिवालीका अतिरिक्त बहुतसे ब्राह्मग और क्षत्रियगज पुत्र तथा बणिक उत्सव चला आ रहा है । भगवान महावीरके परमश्रेयो मंठ आदि भगवानके विहार और धर्मप्रचारमे प्रबुद्ध हुए लाभकी पुण्य स्मृति और पवित्रता इस मोहारमे गर्भित है:
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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