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________________ किरण १०१२ ! भगवान महावीर ३५७ प्रकाश है. साक्षात ज्ञान, शांति और सुख है। जिस समय थे और बड़ी उत्सुकतासे यह समाचार महात्मा बुद्धको भगवान सर्वज्ञ हुए देवलोकके इन्द्र तथा देवतागण भगवानके सुनाने के लिये दौड़े हुए गये थे। भगवानके फेवली होते निकट आनन्दोत्सव मनाने आये। उन्होंने अनेक प्रकारसे भर. ही जनता उन पर एक दम मोहित होगई थी। बगान व बानकी स्तुति और बंदना की। हम भी इस समय उस दिव्य बिहार प्रान्तम वीरगुणानुवादकी धूमधाम खूब जोरोंसे थी। अवसरका स्मरण करके मन, वचन और कायकी विशुद्धतामे सिंघभूम ज़िलाका शुद्ध नाम हि भूमि' बताया गया है भगवानके परम पवित्र ज्ञानवर्द्धक चरणोंमे नतमस्तक होते हैं। क्योंकि वीर प्रजुका चिन्ह सिंह था। इसके अतिरिक्त विजय उसी समय इन्द्रने भगवानका सभाभवन अर्थात सम- भूमि वर्द्धमाम जिसको अाजकल बर्दवान कहते हैं व वीरबमरण रचाया। समवपरणकी गंधकुटीमें अंतरीक्ष विमान भूमि श्रादि स्थान भगवान महावीरके पवित्र नाम और होकर भगवान महावीर सर्व जीवोंको समान रीतिमे उपदेश उनके सम्बन्धको प्रकट करने वाले हैं। देते थे जो कि जीवमात्रके लिये सुगम व प्राय था । वहां न भगवान महावीरकी सर्वज्ञताके संबन्धमे डा० विमल मतभेद था न जाति भेद न ऊँचका ख्याल था और न नीचका। चरण, M.A |D. अपनी पुस्तक Sme Khatसब समान-भावसे भगवानके उपदेशसं कृतकृत्य होते थे। My Tribes of Ancient India में लिखते हैं इस दिव्य समवसरण-सहित भगवान सर्वत्र विहार कि- 'भगवान महावीर सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अनन्त केवलज्ञानके करने थे । इस विहारमे उनके साथ चतुर्निकायिक संघ और धारी चलते, बैटते, माते, जागते सब समयोंमे पर्वज्ञ थे। मुख्य गणधर भी रहते थे। भगवानके सर्वप्रथम शिष्य वे अत्यन्त बुद्धिमान, परम विद्वान, दातार पुरुष, चतुःप्रकार और मुख्य गणधर वेदपारंगत प्रख्यात ब्रह्मण इन्द्रभूति में इन्द्रिय निग्रहम दत्तचित्त और स्वयं देवी सुनी वस्तुओं गौतम थे। भगवान महावीरने सनातन सन्यका उपदेश को बतलाने वाले थे। जनता उनको बहुत ही पूज्य दृष्टिले सर्वप्रथम इन्हीको दिया था। इनको मन.पर्यय ज्ञानकी प्रासि देखती थी।' हुई थी और इन्होंने मुख्य गणधरके पद पर विराजमान भगवान महावीरने अपनी समवसरणकी विभूति होकर भगवानकी वाणीकी द्वादशांगरूपम रचना की थी। यहिन सर्वत्र विहार किया और सब जीवोको बिना भेदभाव भगवान महावीरका उपदेश सनातन यथार्थ सत्यक के धर्मोपदेश दिया। महावीर पुराणमें लिया है कि विदेह मिवा और कुछ न था। उन्होंने कोई नबीन मतकी स्थापना के राजा चेटकने भगवान के चरणोका आश्रय लिया था। नहीं की थ। किन्तु प्राचीन जैन धर्मको पुनः जीवित किया अंगदेशक शासक कुणिकने भगवानकी विनय की थी और था। उस समयकं प्रख्यात मतप्रवर्तक महामा गौतम बुद्धके बह कोशाम्बी तक भगवान के साथ साथ गया था । विषयमे तो स्पष्ट है कि उनके जीवन पर भगवान महावीर कौशाम्बीके नृपति शतानीकने भगवानकी उपासना की और की मर्वज्ञ-अवस्थाका ऐसा प्रबल प्रभाव पड़ा कि भगवान वह अन्तम भगवानके मंघम सम्मिलित हो गया था। महावीरके धर्म:चारके अन्तरवाल तक उनके दर्शन ही भगवानकी माता विशलाकी छोटी बहन मृगावती राजा मुश्किल होते थे। महात्मा बुद्ध के ५७ से ७० वर्षके शतानीककी पहरानी थी। राजा शतानीक जैनधर्मके परम मध्यवर्ती जीवन घटनाका उल्लेख नहीके बराबर मिलता भक्त थे। माता त्रिशलाकी सबसे छोटी बहन चन्दना है । स्वरेन्ड विशप बिगन्डेट माहब तो कहते हैं कि यह श्राजन्म कुमारी ही रही थी। वह सर्वगुणसम्पन्न परम काल प्राय. घटनाओंके उल्लंग्वम कोरा है। महात्मा बुद्ध के मुन्दरी थी। एक दिन जब वह राजोद्यानमें वायुसेवन कर उपरोक जीवनकालकी घटनाओंके न मिलनेका कारण मचा रही थी उस समय एक विद्याधर उसे उठा कर विमानमें मुच भगवान महावीरके धर्मप्रचारका प्रभाव है। यह बात ले उड़ा। किन्तु अपनी स्त्रीके भयमे वह उसको अपने घर बौद्ध ग्रन्थ 'मामगाम सुतन्त से भी मिट्ट होती है, जिसमें नहीं लेगया और मार्गमे ही छोड़ गया। शोकातुर चन्दना बतलाया है कि भगवान महावीरकी निर्वाण प्राप्तिकी ग्वबर को उस समय एक भीलने लेजाकर अपने राजाके सुपुर्द पाकर महाामा बुद्ध के , ग्व शिष्य श्रानन्द बडे हर्षित हुए कर दिया। दुष्ट भीलराजने चन्दनाको बहुत बाम दिये
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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