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________________ ३५६ अनेकान्त *ज्वान महावी ने निग्रंथ मुनिकी दिगम्बरीय (नग्न) प्रतिमायोग धारण करके तिष्ठ गये। उसी समय भव नामक दीक्षा ग्रहण की थी यह दिगंवर शास्त्र प्रगट करते हैं एक र द्रने श्राकर घोर उपमर्ग क्यिा किन्तु भगवान जरा भी परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय के शास्त्रका कथन है कि भगवान अपने ध्यानसे चल विचल नहीं हुए । हठात रुद्रको लजित दीक्षासमय नग्न हुए थे । इन्द्रने दीक्षासमयसे एक वर्ष होना पड़ा और उसने भगवानकी उचितरूपमे स्तुति की। और एक महीना उपरान्त तक देवदूष्य वस्त्र धारण कराये इसके अतिरिक. श्वेताम्बर शास्त्रोमें भगवानपर अन्य थे। पश्चात् वे नन्न हो गये । (जैनसूत्र भा०) बहुतमे उपसर्ग होनेका वर्णन मिलता है, जिससे भगवानके देवदृष्य यस्त्रकी व्याख्यामें बताया है कि इस वस्त्रको पहने कठिन तपश्चरण और महती सहनशीलतापर अच्छा हुए भी भगवान नग्न प्रतीत होते हैं । श्वेताम्बर श्रागम प्रकाश पडता है । सचमुच भगवान महावीरके जीवनका ग्रन्थों पर इस सम्बन्धमे एक गंभीर दृष्टि डाले तो महत्व उनकी इस वष्टसहिष्णुनामे नहीं है प्रत्युत उस उनमें भी हमें नग्नावस्थाकी विशिष्टता मिल जाती है। श्रामबल और देहविरनिमें है जहाँसे इस गुण का और श्राचारागसूत्रमें नग्न अवस्थाको सर्वोत्कृष्ट बतलाया है और इसके साथ साथ अन्य कितने ही गुणोका उद्गम हुअा था। कहा है कि तीर्थकगेने भी इस नग्नवेषको धारण किया था। एक बार अपने अनुपम सौन्दर्यमे विश्वको विमोहित करने ऐसी हालत में यह स्पष्ट है कि न केवल भगवान महावीर वाली अनेक सुन्दर सलोनी देव-रमणियों महावीरजीके पास और ऋषभदेवने ही इम नग्नावस्थाको धारण किया था श्रावर राम रचने लगी और नाना प्रकारके हाव, भाव, किन्तु प्रत्येक तीर्थकरने अपने मुनि जीवनमे इस प्राकृतिक कटाक्ष और मोहक अंगविशेषर्य वे अपनी केलि-कामना मुद्राको अपना कर नग्नपरिषहको सहन किया है। प्रगट करने लगी कि जिसे देग्यकर किमी साधारण युवा जैन ग्रन्थोंके अतिरिक्त बौद्धोंके पाली और चीनी तपस्वीका स्खलित हो जाना बहुत संभव था किन्तु भगवान भाषाओंके ग्रंथों में भी जैन मुनियोको अचेलक अर्थात नग्न महावीर पर इस कामसंन्यका कुछ भी असर न हुआ। रूप लिखा हुआ पाया जाता है। हिन्दुधोके प्राचीन ऋगवेद, महावीर अजेय थे । फलन देव रमणियो अपनासा मुंह वराहमिहिरसंहिता, महाभारत विष्णुपुराण, भागवत, लेकर चली गई। यह घटना भगवानके श्रामबल और वेदान्तसूत्र, दशकुमारचरित्र इत्यादि शास्त्रों में जैन मुनियों इन्द्रिय-निग्रहकी पूर्णताकी द्योतक है। को 'नन' 'विवसन' आदि लिखा है। अचेलक अर्थात नग्न दिगंबर व श्वेताम्बर सम्प्रदायके मतानुसार भगवान दशा ही कल्याणकारी है और यही मोक्ष प्राप्त वरनेका महावीरका १२ वर्ष तक तपश्चरण करनेके उपरान्त ४० वर्ष सनातन लिंग है, यह बात जैनमनमे प्राचानकालसे स्वीकृत है। अतएवं जैन मुनियोंके यथागत दिगम्बर वेषम की श्राय में केवलज्ञान प्राप्त होना दर्शाया गया है। वैसाख शका करना वृथा है। सुदी १० के सुबत नामके दिन जम्भक ग्रामके बाहर ऋजु. दीक्षा धारण करने पर भगवान महावीरने ढाई दिन कृला नदीके बाम तट पर एक साल वृक्ष के नीचे भगवान का उपवास किया। महावीर पुराणका कथन है कि जब ज्ञान-ध्यानमे लीन विराजमान थे। समय मध्यान्हका हो भगवान सर्वप्रथम मुनिश्रवस्थामे श्राहारनि मत्त निकले गया था। सूर्यदेव अपने प्रचण्ड प्रकाशसे तनिक स्वलिन हो तो कृल नगरके कृतनृपने उनको पडगाह कर भकिपूर्वक चले थे, उसी समय भगवानको दिव्य केवलज्ञानकी प्राप्ति श्राहार दान दिया था। भगवान पारणा करके पुन: बनमें हुई और वे साक्षात तीर्थकर बन गये। भगवानको तीनों प्राकर ध्यानलीन और तपश्चरण-रत हो गये । वहा पर लोककी चराचर वस्तुयें उनके जाननेत्रमे झलकने लगी। नि.शंक रीतिमे रहकर उन्होंने अनेक योगोकी साधना की भगवान त्रिलोकवंदनीय बन गये। ज्ञानावरणादि चार और एकांत स्थानमें विराजमान होकर बार-बार दश तरह घातिया कोका उनके प्रभाव हो गया। भगवान इस के धर्म-ध्यानका चितवन किया। सपारमें साक्षात केवली, परमामा हो गये। भगवानका ___ उपरान्त विचरते हुए वे उज्जयनीके निकट अवस्थित ज्ञान आज तक ज्योका त्यों प्रकाशम न है और सदैवके अतिमुनक नामक श्मशानमे पहुंचे और वहां रात्रिके समय लिये ऐसा ही रहेगा। यही दिव्य जीवन है, परमोत्कृष्ट
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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