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________________ किरण १०-१५] भगवान महावीर ३५५ नह मर्प स्वर्गलोकका एक देव था जो भगवानक दयालु अधर्म पथपर अग्रसर होरहे थे, मम्मार्ग पर लगाना उन्हें चिन और अपूर्व बलशाली शरीरकी प्रमिद्धि सुनकर उनकी हासतौर पर इष्ट था। उस समय समाजमें ब्रह्म वर्मका परीक्षा लेने पाया था। इस तरह भगवानकी परीक्षा लेकर महाव कम होकर व्यभिचारकी मात्रा बढ रही थी। ऋषिवह विशेष हर्षित हुश्रा और भगवानकी बदना करके अपने गण, जिनका इन्द्रियनिग्रह व मयमपालन करना मुग्थ्य स्थानको चला गया। भगवानका यह बाल्यकाल, श्रादर्श- कर्तव्य था, अपने कर्तव्यमे युक्त होकर पनियां रखते थे। भ्याग ६ ब्रह्मचर्यका जीवन हमारे लिये अनुकरणीय है। ऐसी परिस्थितिम भगवान के दिव्य अम्बड ब्रह्मचर्यके चरित्र भगवानके माता पिता उनकी युवावस्था देवकर में जनता पर महान प्रभाव पड़ा । आजके असयममय विवाह करदनेकी पार्योजना करने लगे । देश-देशांतर्गके वातावरणम दशके नवयुवकोके समक्ष यह आदर्श उपगजागण अपनी कन्याश्रीको भगवान के साथ परणवाना स्थित करना परम आवश्यक है। जिस पवित्र भारतवर्षम चाहते थे परन्तु विशिष्ट ज्ञानी, न्यागकी मूर्ति, भगवान भगवान महावीरके दिव्य अखण्ड ब्रह्मचर्यका अनुपम प्रादर्श महावीरको यह रमणी-रन भी मोहिन नहीं कर सका। उपस्थित हो रहा था वही आज ब्रह्मचर्यका प्राय: सर्वथा उन्होंने समार कल्याण के लिये अपने सर्वम्वका स्याग करना अभाव देखकर हमारा हृदय थर्रा जाता है। भगवान ही परमावश्यक समझा । माना पिताने बहुत समझाया महावीरका यह श्रादर्श परम शिक्षापूर्ण, हितकर और चिन्नु वैगग्यका गाढा रंग जो भगवान पर चढ चुका था प्रत्येक स्त्री-पुरुषके लिये अनुकरणीय है। यदि हम भगवान वह उनग्ना तो दूर रहा किन्तु जरा भी हनका नहीं हुआ। के इस दिव्य चरित्रये किचिन मात्र भी उपदेश ग्रहण करें महावीरनं अपना विवाह करना अम्वीकार कर दिया। ना अवश्य हमारा कल्याण हो सकता है। श्वेताम्बर संग्रहायके शाखांमे कहा गया है कि भगवान भगवान महावीर बाल्यावस्थामे ही श्रावकके व्रताका ने अपने माता पिनाके प्राग्रहये कोलग देशके राजा जिनशत्र प्रयास करते हुए अपने पिता के गज्यमे सहायक बन रहे की पुत्री यशोदराय पाणिग्रहण कर लिया था और उनके थे। एकदिन भगवान विचारमे मग्न थे कि सहमा उनको प्रियदर्शना नामकी पुत्रीवा भी जन्म हुश्रा था । दिगम्बर अपने पूर्व भवका स्मरण हो पाया और प्रामज्ञान प्रकट शाम्र हरिवंश-पुराणमें कहा गया है कि यशोदराकं साथ हुअा। उन्होंने विचाग कि स्वर्गाके अपूर्व विषय-मुखोंमे विवाहकी आयोजना की गई थी परन्तु महावीर स्वामीने उसे जब कुछ तृप्ति नही हुई ना यह मामारिक क्षणिक इन्द्रिय. म्वीकार नहीं किया। इसकी पुष्टि बोह-ग्रंथा भी होती है विषय-मुख किस तरह मुखी बना सकते हैं। भगवानन स्वताम्बर शास्त्रों में भगवान महावीरके अविवाहित विचारा कि उन्होंने अपने जीवनके ३० वर्ष वृथा व्यतीत रहनेकी भी एक मान्यता है जिसमें मानम होना है कि भ. किये हैं। मनुष्य जन्म दुर्लभ है और इस लिये हम जन्मका महावीर प्रथमवय कुमारावस्थामनी वामपूज्य, मलि. नेमि मचा उपयोग करना अन्यन्त आवश्यक है। और पार्श्वनाथ नार्थकाकी तरह विना विवाह कगये उनर पुगणमे लिखा है कि इस प्रकार भगवान दीक्षित होगये थे । जानिम्मरगा और थामज्ञान होने पर लोकान्निक देवान भगवान महावीरका जन्म एक ऐसे समयमै हुअा था पाकर उनकी स्तुति की और इन्द्रादि देवाने श्राकर जब कि सामाजिक हालत बिगडी हुई थी । ब्रह्मचर्यका उनके दीक्षाकल्याणका उपसव मनाया । भगवानने महत्व कम होगया था। अपने अखण्ड ब्रह्मचर्यमे समाजसे मीठी नाणीपे मब भाई-वधुश्राको प्रसन्न किया और गव शिक्षा देना भगवानको अभीष्ट था। और भुमकिन है इसी से विदा लेकर वे अपनी चन्द्रप्रभा पालकी पर श्रारूद हो वजहमे विवाह मीकार नहीं किया हो; क्योंकि उनके बनखंड नामक वनमें पहुंचे। वहां पर आपने अपने सब जोवनका प्रधान लक्ष्य मंमारकल्याण था, श्रन, अग्याचा बम्बाभूपण आदि उतार कर वितरण कर दियं और फिर को रोकना और उन प्राणियोंकी जो धर्मका गस्ता भूनकर आप मिद्धाको नमस्कार कर उत्तराभिमुग्ध होकर तथा पच - देवी अंगका बर्ष ४ किग्गा ११-१. पृ०५-८ मुष्टि केशलोच करके परम उपासनीय निर्ग्रन्थ मुनि होगये।
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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