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किरण १.२]
प्रात्म-समर्पण
गजपुत्रने अपने आपको मौंपते हर विनम्र-भाव कहनम उसे मकुचता हो रही हा।"भत हरिको न से उत्तर दिया-'आपकी चरण-ग्जमे !' रुचा, यह । जल्दीस बोला-बात क्या है, महस
तपम्वांगजन प्रसनना-पूर्वक अनुमति दी- बाल ता" 'कल्याण होगा, बच्चा तेग, अभय रह ।'
कहने लगा-'भैय्याकी दशा अच्छी नहीं है। और भतृहरिको नपवीगजका शिष्यत्व प्राप्त घोर-दरिद्रतास दिन काट रहे हैं, वं| अंगुल-भरकी हुआ ही।-ममाद ।
कोपीन नक नहीं है, उनके पाम। न रहनके लिए बिलस्त-भर जगह । खाने तकमे मुहनाज हैं। डेढ़
दिन रहा, और भूग्वा हा वापस पा रहा हूँ, खुदके बारह मी, और बारह गर्मियां माधु-सेवाम खान तकको तो है नही, खिलाने कहाँ में मजबूरन बिना दन बाद भतृहग्नि एक दिन तपम्वागजम उपवास करने पड़े।' प्रार्थना की-'गुरुदेव । अब मुझ एकाकी-वहारकी भर्तृहरिका मर चकग गया, भ्रातृत्व जो था आज्ञा दी जाए। भैय्याकी खबर लेनको जी कर उसके हृदयग । मोचता रहा, पल-भर । फिर बोलारहा है, मुहन हागई-क दृमरंम जुदा हुए । 'हं । यह बात है ?
भत हार जा अब स्वयं एक प्रमुम्ब-माधुके रूपमे और उसी वक्त उमने आधी लॅबी-कलंकरमथा। जंत्र, मंत्र, तंत्र मबम निपुण । अनेक विद्याश्री भैय्याकी दरिद्रताकी प्रतिद्वन्दताक लिए-एक शिष्य का स्वामी । नपवागजन उम महर्प आज्ञा दी। हाथो ग्वानः करदी। कुछ विद्या दी, और दी महा मूल्य 'कल करम'
से x x x x भग हई-क तंबी। नांबका साना बनानकी दुर्लभ वस्तु ।
कह दिन बाद, शिष्य लौट कर आया-थका, भतृहरि कलंकरस पा आनन्द विभोर हो उठा। भयभीन मा, उदाम । साध मेवाको अन्तिम और कीमनी भेठने उसे मुग्ध भत हग्नि पृछ। 'कहा, प्रसन्न हुए न, भैय्या ? कर दिया। पैगम मिर डाल कर उमन प्रगाम किया, -कलंक ग्म' पाकर ?' और चला अपने शिष्य दल-महित-शुभचन्द्रकी वह बाला-दरिद्रनानं भैय्याकी अक्ल भी वाजम।
बिगाड़ दी है । कलंक-रम जैमी महावस्तु उनके X X X X नर्माबम कहाँ
बहत दर कही, सुहावन स्थानम, भर्तृहरिन हेतिम भर कर मत हार बोला-ए क्या अपना श्राश्रम बनाया। शिप्य, शुभचन्द्रकी बाजम आधी तंबी-रस गॅवा पाया कही गए हुए थे-चागे ओर।
शिप्यन तफमील पंश की-नबी देकर मैन कई निगश लौटे। कुछने मफलताका समाचार बना दिया उन्हें कि यह बहुमूल्यम तांबेको स्वर्ण कहा-'गुरुवर ! आपके भैय्याका हम लाग खोज बनाने की ताकत रखता हे । आपकी दरिद्रनास आए। वे गन्धमादन पर्वतपर ठहरे हुए हैं।" दु.खिन हाकर भैयान यह कठिन-साध्य वस्तु आपके
भर्तृहरिकी आँख चमक उठी, शायद भीतरका लिग भजी है। स्वीकार कीजिए-इस। वात्सल्य जगमगा उठा था। गद्गद-कण्ठम बाला- उन्होंने उपेक्षामं एक बार बीकी और देवा, फिर 'अच्छा'.१ कैमी दशा है-उनकी ? चैनसे ना हैं बोले-'पटक दा इम, मामनके पत्थरोपर ।' मैं
घबगया-कह क्या रहे है य व फिर बोलेशिष्य गर्दन झुकाकर बैठ रहा, जैसे कडुवी बान 'कह ना रहा हूँ-पटक दा इम पत्थगे पर।' मैं
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