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________________ ३४ अनेकान्त [ वर्ष ५ और उन्होंने उठाया, एक विवेकी, बुद्धिमानकी तरह अब उसे चेन श्राया-भब लगी है उम! भरपूर लाभ ! भावना' जो उनकी बहुत ऊँची उठ प्यामम गला सूखा जा रहा है ! सुबह से यह वक्त चुकी थी! हाने आया, ग्वाया पिया क्या है, जग भी तो नहीं !' अनायास भक्ति और श्रद्धानमा नवा दिया- वह उठा, क्षुधा-ममम्या का हल खोजन। और उस पाप-क्षीण, पूज्यताके चरणोम । बोले-'भग- फिर जा कुछ कन्द-मूल-फल हाथ लगे, उन्हें गले वन् । दुनियाकी धधकनी भाग निकल कर, आप के नीचे उतारा। कुछ तसल्ली जरूर हुई, लेकिन की शरणमे आ पड़ा हूँ ! मुझे उघाग्यि !' पानीन शान्त होने वाली प्याम ज्यो-की-त्या बनी रही। और फिर, थाइम ममयमे ही एक आदर्श, यह दमग बाधा थी, क़रीब करीब असहनीयभनुकरणीय परिवतेन हुआ-कि शुभचन्द्र, ते जम्बा- मा । पानीकी तलाशम घूमने लगा अब, डगवन बनो गजपुत्र न रह कर, परमशान्त, वेगग्य-मगिटन के बीच । लेकिन पानी था कहॉ, वहाँ जहाँ तहाँ दिगम्बर-मप, निर्लिप्त-साधुकी श्रेणीम जा बैठे। निगशा, मायामचिका! आत्म-विकास की सीमाका आनन्दोपभोग करनेकी दिवाकरका विनाश-काल मन्निकट था । अभेद्यलालसा लेकर। अन्धकार वृक्षोकी रमणीयताको भयोत्पादनकी वस्तु x x x x बना देनके लिए ललचा रहा था। कि भर्तृहरिको दीग्वा-कुछ दर घनी-छायाको चीर भर्तृहरि बढ़ा, और बढ़ता चला गया कछ दर । कर ऊपर उठना हुआ, धुआँ-मा। हदयन कल्पनाका दुनियाकै अरुचिकर-मंघर्ष, और विपादपूर्ण घटनाओ महारा लिया-'जरूर वहाँ कुछ मनुष्य हान को सोचता-विचारमा हश्रा ! मन उमका दनियाम चाहिएँ। जहाँ धुओं है, वहाँ आग। और फिर कुढ़-सा रहा है। चाह रहा है-'कहीं दूर, शायद मानवका अागम गहरा मम्बन्ध है। मुमकिन है, वहाँ दुनियाके उस पार, जाकर रहे, जहाँ आनन्द ही पाना पाना मिल मक आनन्द हो।' ___ पाम पहुँचकर भर्तृहग्निं दग्ना-चा और बहुत घूमा, म मानव-हीन बीहडमे । दिन आग धधक रही है और बीचमे मफेद बाल, मतंज ढलने लगा! दिवाकरन अपनी उग्रतासे हाथ खीचा। ललाट और जटाओसे सुशोभित एक तपम्बी-गजपृथ्वीको झुलमा-मुलमा कर जला डालनकी गक्षमा- मिहासनपर विगजे-पंचाग्नि-नप, नप रहे है। शरीर प्रवृत्ति पर जैसे धीरे-धीरे काबू पाते जा रहे हो ! पैगे में वृद्धता अवश्य है, लेकिन अशक्तिना नहीं। तपाकी थकावटने अधिकार पूर्वक विचार-धागाक मार्ग बलन उ.हे दीप्ति दे रखी हो जैसे। में रुकावट डाली ! __ ममापमे झोपड़ियां हैं-मृगचर्म, चीमटे, भर्तृहरि कया! बाघम्बर, कोपीने, कमण्डल वगैरहम मंयुक्त । दरख्तकी ठंडी छाँहमे बैठ गया, सणिक जहां-तहां शिष्य-समुदाय अपने अपने कार्यमे विश्रामकी नीयनसे-विचार-ऊर्मियांस निकल कर । संलग्न है।चागे ओर देखा-पर, भैय्या थे कहाँ? जो दीव भर्तृहरि प्रभावित हुआ । आडम्बर जो था, सकते ! वही पेड़, गवारकी तरह जहाँ-तहाँ छानी प्रभावित करने के लिए ही शायद । नही, आत्मात्थान ताने खड़े थे। मोचने लगा-'तलाश करना व्यर्थ के लिए बाहरी किम चीज़की जरूरत ?.. है। अपन हिलमिल के साथ रहने ता आए नहीं, सिर नवा कर अभिवादन किया। तपम्बी-गजने आए हैं श्रात्माद्धार के लिए ! और नमक लिए माथी समाधि-भंग की । बोल, मृदु-मुमकानका बखेरते की नहीं, आत्म-बलकी जरूरत होगी । फिर बेकार ! हुए-'कहा, गजपुत्र । यहां कैसे ?'
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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