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________________ आत्म-समर्पण [ लेखक - श्री 'भगवत्' जैन ] [१] farm at बुरी नही है ! बुग है विराग के नाम पर आत्म-हनन ! इच्छा-शक्ति और वासना जब तक आत्मा के सम्पर्कमे है, तब तक चाहे कोई रूप क्यो न रख लिया जाय, सच्चे अर्थ मे उसे विरागी न कहा जाएगा । विरागकी कसौटी है-वासनाकी हीनता ! जहाँ वासना जीवित है, वहाँ विगगकी गुजर कहाँ ? उसे कहना चाहिए - दम्भ, विरागका कलंक ! क्योंकि वासना पाप है। और विराग एक पावन वस्तु । मुक्ति प्राप्तिका एक मफल- प्रयत्न ! और यो, विरागके दो हिम्से हो जाते हैंएक सराग-विराग, एक यथार्थ विगग ! या कह लीजिए, विराग एक ही रहता है! सिर्फ पहलू उसके दो दीखने लगते हैं- एक उत्थान, एक पतन |... एक वासना-शून्य, एक पापमय ! एक विवेकपूर्ण, एक अज्ञान ! विरागके इन्हीं दो पहलुओका विश्लेषण इस कहानीम किया गया है !... दुनिया से उदास, वे दोनों चल दिए तपोभूमिमें स्थान पाने की आशा लेकर, दुनिया वालोसे दूर : माँ-बाप, सुजन-सनेही सबके दुलार प्यार और साम्राज्य की लुभावक समृद्धिको ठोकर मार कर ! मन जा ऊब चुका था दुनिया खुदगर्जी से ! जीवन की खोखली आशा भोस ! कोई रोक न सका उन्हें! न माँ की ममता, पिता का स्नेह ! न ही राज्य-वैभवका लोभ ! सुखो के लालचको भी शायद वह ग्वो चुके थे। और फिर आने वालोको कभी कोई रोक भी पाया है ? शुभचन्द्र थे बड़े और भर्तृहरि था छांटा ! कुछ दूर दोनो साथ चले- दोनोका रास्ता एक था-विराग ! आगे बढ़ने पर रास्ता फटा, दो पगडंडियाँ मिली ! एक और चले शुभचन्द्र, दूसरा और भर्तृहरि दोनो अपन अपन विचारोंमें इतने उलझे हुए, खाये हुए थे कि एक दूसरे की गति-विधिसे अनभिज्ञ : जरूरत भी किसीको यह नहीं थी कि एक दूसरे के सुधारकी चिन्ताको अपने सिर लेता । सबाल जा अपनी-अपनी आत्म-विशुद्धिका सामने था । दोनोका विपरीत दिशा की ओर जाना थाविरागके दो पहलुओका स्पष्टीकरण !... दानो आगे बढ़ते गए । शुभचन्द्र के चारों ओर था अब निर्जन वन ! लेकिन वे थे, जो उससे बिल्कुल बेखबर थे ! कहाँ चल रहे हैं, इसे भूले हुए! अपनी निजी समस्याएँ जो उनके सामने विग्वरी पड़ी थीं ! सांघते जारहे थे- 'संसारकी अथिरता, प्राणीका एकाकीपन, निरीहता!' और जो नजर उठा कर देखा, तो हृदय गद्गद् आनन्द-विभोर हो उठा ! - समयकी उपयुक्त वर्षा पर जैसे किसान ! स्वच्छ पाषाण खण्डपर तपोनिधि, वामना विजयी दिगम्बर साधु विराजे हुए हैंवंदनीय श्रनसागर ! शुभचन्द्रकी आध्यात्मिकताको एक मौका दिया, संयोगने - सम्भवतः विकास प्राप्त करनेके लिए !
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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