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अनेकान्त
[ वर्ष ५
संकटम था-एक मोर कुओं, दूसरी ओर खाई। वहीत ?-एक स्वच्छ पाषाणखण्डपर बिराजा हुआ किसकी आज्ञा पालन करूँ -मांचने लगा । है-नग्न! आंखोंने पहिचाना-'भैय्या ही ता हैं।'
आखिर तय किया-'बड़े भाईकी आज्ञा पालन करनी मोर वह गद्गद् हा उठा। चरमोमे गिरकर अभि चाहिए । छाटे भाई जा बड़े भाईकी प्रसन्नता इच्छक वादन किया-सप्रेम। हैं। बड़े भाईकी आज्ञा-भंग, छोटे भाईको दुग्वद न शुभचन्द्रन नजर उठाकर देखा, ता-भत हरि । हो। और तभी मैंने कलंकरस पत्थर्ग पर उँडेल गेरुत्रा वस्त्रांस मण्डित, जटामास शाभित, मृगचर्म दिया।'
से संयुक्त ____ भतृहरिके हृदयपर जैन बिच्छ्ने डंक मार धर्मवृद्धि दी ! दिया-'आह !'
भर्तृहरि बाला-भैया ! जैसे ही सुना, कि तुम वह मर्माहत-सा, बैठाका बैठा रह गया । जैस संकटम हां, आधी तंबी कलंकरस भेज दिया था। चैतन्यता खो बैठा हो।
लेकिन वह व्यर्थ गया ! अब शेष आधी तंबी भी लेकर उपस्थित हुश्रा हूं!'
'हो ! क्या होता है इससे-वत्स ?' उस रात भतृहरिको नीद न आई । बहुत प्रयत्न
'माना बनाया जाता है-भैया ! बड़ी वेशकीमत करनेपर भी वह न मोमका । चिन्ताएँ जो मनको धद्वलित किए हुए थीं। ..
'सोना ?'--शुभचन्द्र ने पूछा, और तंबी उठा कर
पत्थरपर पटक दी। कलंकरस बह कर जाने लगा, ___ वह ग्वीजा हुआ था-अपने आप पर। मोच
पननकी प्रोग; निराश्रित-सा! रहा था-'भूल मैंने ही की है। इतनी बहुमूल्य
भर्तृहरि सन्न !! वस्तुए कही यों भेजी-मँगाई जाती हैं। ऐहतियात
शुभचन्द्र बोले-'कहां हुआ माना ? देख रहे भी तो कोई चीज़ है-आखिर । अमम्भव नही, कि शिष्यन भैय्याको रमकी ठीक ठीक महना ही न
- हो-भर्तृहरि ?' बताई हो और उन्होंने उसे वैमा ही कुछ समझ लुढ़का देने की आज्ञा देदी हो।'
नही, नाँबा मोना बनता है। तुमने यह क्या कियादेर तक वह लटे हए धनिककी तरह माचता उफ़ ? बारहवर्ष गुरुकी सेवा करने पर इस पा मका विचारता रहा । और जब सुबह उठा तो एक निश्रय था-मैं । आफ् । यह दुर्लभ-वस्तु न तुम्हारे काम की दृढ़ता उसके माथ थी। 'ग्मकी बरबादी और आयीन मेरी रही!' भैय्याकी दुरवस्थान उसे काफी प्रसन्नाष दे रखा शुभचन्द मुस्कराये-भतृहरिकी सरलता पर, था। लेकिन वह था, जो असन्तोषक बीचमे सन्ताष भोले पन पर ! फिर बोले-भतृहरि ! तुम विगगके का साम्राज्य कायम करने का बीड़ा उठाए हुए था। लिए, यहाँ आए थे-धन-दौलत, मान-सम्मान और
भ्रातृत्वकी पुनीत भावनास प्रेरित भर्तृहरि चला, गज्य-लक्ष्मीको ठुकराकर । मैं देख रहा हूँ-सोनेके म्वयम् आधी-बची कलक-रस तंबी लेकर । दुमगे पर लोभको यहाँ आकर भी तुम नहीं छोड़ मकं हो। से यकीन जो जाता रहा था-उमका ! भैय्या को आज भी तुममे कलंक बाकी है। इतने वर्ष बिताकर आँखोंसे देख लेनकी क्षुधा जो जाग्रत हो उठी थी- भी विगगकी तह तक नहीं पहुंच पाए हो ? : 'सान मनमें।
की इच्छा ही जीवित रखनी थी, तो विगगको पविदुग्म देखा, देखा कि कृश शरीर-तपांबलसं त्रताको मलिन करने क्यो पाए-यहाँ ? इसे विराग