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________________ २४ अनेकान्त [वर्ष ५ तत्त्वार्थस्य शास्त्रत्वे तद्वार्तिकस्य शास्त्रत्वं मिद्धमेव संस्तुत मासके लिये उन्हीं तीन विशेषणों का उल्लेख किया नदर्थत्वत..... 'तदनेन तव्याख्यानस्य शास्त्रत्वं है जिनका उल्लेख 'मोक्षमार्गस्य मेतारम्' इस मंगललोकनिवेदितम् ।.... 'ततनदारंभे युक्त परापरगुरु- में किया गया है। 'मुनीन्द्र' से विद्यानन्दका अभिप्राय प्रवाहस्याध्यानम।" 'उमास्वाति' से ही है, जिन्हें आगे भी 'इतियुक्त मुनीन्द्रायहां यह शंका उठई गई है कि तत्त्वार्थसूत्रके तत्वार्थ- सामादिसूत्रप्रवर्तनम' (वा० २४८) जैसे वाक्योंके द्वारा सत्रो श्लो रूपमें वार्मिक तथा वार्तिकके व्याख्यानको अदिम सूत्र 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमा शास्त्रत्व में प्राप्त है, जिससे उनके प्रारंभमें परमेष्टिके या- का प्रवर्तक लिखा है। और यह बात श्लोककीर्तिकके पानका विधान किया जाता है फिर इस शंकाका समाधान पूर्वापर-सम्बन्धको मिलानेमे विचारशील पाठकोंको भले करते हुए लिखा है कि 'शास्त्रका लक्षण पाये जाने ये सब प्रकार अवगत हो सकती है। पूज्यपाद प्राचार्यको उक्त शास्त्र हैं। शास्त्रका अमुक लक्षण है और वह दशाध्यायरूप सूत्रका प्रवर्तक नहीं कहा जामाता-वे उसके मात्र तत्वार्थसूत्रके साथ घटित होता है, इसलिये तत्त्वार्थसूत्र शास्त्र व्याख्याकार अथवा वृत्तिकार थे। है।" 'तस्वार्थसूत्रके शास्त्र सिद्ध होने पर उसके वार्तिक (३) विगानन्दकी अपमहल के निम्म यापीय भी हमको के श स्त्रपना मित्रहीहै कोकि वह तन्वार्थमूत्रका अर्थ पष्टि होती है, निनम उस शास्त्रको निःश्रेयमशास्त्र ( मोक्षहै।'' और इसी तरह व तिकके व्याख्यानवो भी शास्त्र शास्त्र ) बतलाते हुए उनकी श्रादिमे स्तुत ग्रामके लिये कहा गया है । अत:--शास्त्र होनेसे- उनके प्रारम्भमे उन्ही विशेषणोका उमी क्रममे और भी स्पष्ट उल्लेख किया परापर-गुरुषवारका श्राध्यान युक्त है।' है जिनका जिम क्रममे उहाँम्ब उक्त मंगल श्लोक में पाया हममे स्पष्ट है कि यदि दशाध्यायरूप प्रकृत तस्यार्थ जाना हैसूत्रके प्रारम्भ में मंगलाचरण न किया गया होता तो (क) "नदेनेदं नियमशामाभ्यादौ तन्निबन्धनतया मंगविद्यानन्द उसके श्रारम्भमे (नदारम्भे) मंगलके किये जाने लार्यतया च मनिभिः मंस्तुतेन निरतिशयगणेन भगवका उल्लेख न करते और न तत्वार्थके मंगल तथा शास्त्रम्बके ना तेन श्रेयोमार्गमात्मनितमिलना मम्यग्मिथ्योपदेशायाधार पर अपने द्वारा श्लोकवार्तिक में किये गये मंगलकी र्थ-विशेषप्रतिपत्त्यर्थमासीमामा विदधाना: " स्वामिपुष्टि करने । श्रतः नवार्थ सूत्रकी श्रादिमे मंगलाचरण जरूर ममन्तभद्राचार्यः प्राहः।" ( पृष्ठ ३ । किया गया है। (ब) "शाम्राराभेमिनस्य मन्नार्गतृतया, कर्मभ(२) अब वह मंगलाचरण कौनसा है ? इसकी भृगतृतया, विश्वनत्वाना ज्ञातृनगा न भगवत्मर्वजन्यपर्यालोचना करते हुए विद्यानन्दके श्लोकवार्तिकान्तर्गत वान्यय गव्यवच्छेदेन व्यवस्थापनाग पर क्षेयं विहिता।" निम्न उल्लेखोंपे भी यह जाना जाता है कि वह मंगलाचरण (पृष्ठ २६४) • मोक्षमार्गम्य नेतारम' इत्यादि मंगलश्लोक ही है- (४) श्रीविद्यानन्दके प्राप्त परीक्षागत वाक्योये इस प्रवृद्वाशेपतत्त्वायें साक्षात्प्रक्षीगणकल्मषे। विषयकी और भी अधिक पुष्टि होती है । यथा:मिद्धे मुनीदमन्नत्ये मोक्षमार्गम्य नेतीर ॥ २॥ श्रेयोमार्गस्य संसिद्धिः प्रसादात्परमेष्ठिनः। सत्यां तन्प्रतिपित्सायामुपयोगात्मकात्मनः। इत्याहस्तद्गुणम्तोत्रं शान्त्रादी मुनिपुङ्गवाः ॥२॥ श्रेयसा योक्ष्यमाणम्य प्रवृत्त सूरमादिमम ॥३॥ इसमें 'मोक्षमार्गकी ससिद्धि परमेष्टिके प्रसादसे होती है इस लिए 'मुनिपुङ्गव शास्त्रकी आदिमें उनके गुणोंका यहां विद्यानन्दने, तत्त्वार्थशास्त्र (सूत्र)के श्रादिमें सूत्र स्तोत्र करते हैं' यह बतलाया गया है। और 'मुनिपुङ्गव' की उपपत्ति बतलाते हुए मुनीन्द्र (उमास्वति) के हाग पदके लिए स्वोपज्ञ टीकामे 'सून कारदियः' पदका प्रयोग * ननु च तत्वार्थशास्त्रस्पादसूत्रं नावदनुपपन्नं · · । करके यह स्पष्ट किया गया गया है कि मुनिपुङ्गव' शब्दका
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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