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________________ किरण ६-७] तत्वार्थसूत्रका मंगलाचरण २२३ और वह तत्वार्थसूत्रकी रचनाके प्रयत्नारम्भ समयको ही रह जाती है। दूसरे, ३२ अक्षरोके उक्त अनुष्टुप् छंदमे अथवा उसकी उत्पत्तिके श्रारम्भ कालको सूचित करने भी उक्त भावको व्यन करनेके लिए काफी गुंजाइश थी-वे लगता है। परन्तु शास्त्रीजीने 'प्रोन्थान का अर्थ जो 'शास्त्र अधिक नही तो 'तत्वार्थशास्त्रादी' पदके स्थान पर की उत्पत्तिका निमित्त बतलाना' तथा 'भूमिका बांधना 'नत्वार्थवृत्यादी पद बनाकर ही उसे व्यक्त कर सकते थे, किया है उसकी उपलब्धि कहीं भी नहीं होती, और क्योकि सर्वार्थ सिद्धिको कस्वार्थवृत्ति' भी कहते हैं और इसलिये वह उनकी निजी कल्पना ही जान पडती है। यह बात उसके श्रन्तके पद्योपे भी जानी जाती है । इसी कल्पनाको लेकर शास्त्रीजीने 'शास्त्रावतार' का अर्थ परन्तु श्रीविद्यानन्द श्राचार्य को शास्त्रीजीका उक्त प्राशय "तत्वार्थशास्त्रके अवतार-अवतरणका-भूमिकाके समय” अभिप्रेत नही था, जैसा कि आगे चलकर और भी स्पष्ट ऐसा किया है और लेग्बके पिछले हिस्संमें प्राप्तपरीक्षा के किया जायगा, और इसी लिए उन्होंने अपने अभिप्रेताअन्तिम श्लोकको उद्धृत काके उसमें आए हुए 'तत्वाथे- नुसार 'तत्वाथशावादा' पदका सम्यक प्रयोग किया शास्त्रादा पदके विषयमे यह अनुरोध किया है कि उसका है जो उनके 'प्रोत्थानारम्भकाले 'जैसे दूसरे पदों पर अर्थ भी 'तत्वार्थशास्त्रको भूमिका के प्रारम्भ में' यही भी अच्छा प्रकाश डालता है। अतः शास्त्रीजीके उन सुभाव करना चाहिये । साथ ही उस भूमिका को वह भूमिका और तर्कमे कुछ भी मार मालूम नही होना, वह व्यर्थवी बतलाया है जो श्रीपूज्यपादाचार्यको सामिाद्ध' टीकाके खीचातानी पर अवलम्बित जान पड़ता है और श्रीविद्यानं:शुरूमे पाई जाती है। यह सब क्थन श्रापका प्रा. विद्या- के उन तीनो पद्या परमे किसी तरह भी फलित नही होता, नन्दकं उक्त ग्रथोके साथ कुछ भी संगन मालूम नही होता। जिन्हें शास्त्रीजीने अपने लेखमे प्रमाण वाक्य के तारपर एक विलक्षण बात अापने और भी कही है और वह यह उद्धत क्यिा है। कि 'प्रोत्थानारम्भकाले' पदका जो अर्थ उन्होंने 'तत्वार्थ प्राचार्य विद्यानन्दका अभिमत सूत्रकी उत्पत्तिका निमित्त बतलाने वाली सापांढकी भूमिका' सुझाया है उसी प्रथमे उक. 'तत्वार्थशास्त्रादी' अब मै श्रीविद्यानन्दाचार्य के कुछ दूसरे वाक्याद्वारा पद प्रयुक हुअा है।' इसप यदि कोई कह कि उक्त पद इतना और भी स्पष्ट कर देना चाहता कि वे तत्त्वार्थकी शब्दरचनापरसे तो ऐमा श्राशय नही झलकता, प्रत मृत्रकी श्रादिमे मगलाचरण मानते थे और वह मंगलाचरण इसके 'तन्वार्थमूत्रकी श्रादिम ऐसा प्राशय स्पष्ट झलक रहा उनकी दृष्टि में 'मोक्षमागम्य नेतार इयादि लोकके है, तो ऐसे प्रश्नकतांकी बातको हैदयमे धारण करके सिवाय और दूसरा कुछ नही था:शास्त्रीजी लिखते हैं--"३२ अक्षर वाले इस छोटस (५) शास्त्रकी श्रादिमे परमेरिके गुणस्तोत्ररूप शाकम अधिकका गुडजाइश ही नहीं है।" इस पर श्राध्यानकी आवश्यकताका प्रतिपादन करते हुए श्रीविद्याशास्त्रीजीसे सहज हीम यह पूछा जा सकता है कि 'अधिक नन्दाचार्य अपने लंकवातिक-न्याख्यानके शुरूम ही की गुजाइश नहीं' इसका क्या मतलब ? क्या विद्यानन्द (पृ. २ पर) लिखते हैं - श्राचार्यको अपना अन्तिम वक्तव्य उस ३२ अक्षर वाले "कयं पुनम्तत्त्वार्थः शास्त्रं नम्य श्लोकवार्तिकं वा तद अनुष्टुप छन्दमे देनेके लिये कोई मजबूरी थी, जिसमें वे । व्याख्यानं वा यन नदारंभ परमेष्टिनामाध्यान विधीअपने श्राशयको पूरी तौर पर व्यक्त भी न कर सके ? यदि यते इति चन तल्लक्षणयागत्वात ।" तच्च नत्वार्थस्य नही तो फिर श्राचार्य महोदयका यदि चैमा श्राशय था तो दशाध्यायीरूपस्यास्तीति शास्त्रं तत्त्वाथः। प्रमिच क्या वे उसे व्यक्त करनेके लिये दुसरे अधिक अक्षरोवाले * मा मिद्धिर्मित मनिपातनाम', बडे छंद का प्रयोग नहीं कर सकते थे १ कर सकते थे नोनवार्थवृनिगनशं मनमा प्रधार ।। १ ।। 'अधिक की गुंजाइश नहीं' ऐसी स्थिति पैदा ही नही तत्वार्थवृत्तिमदिता विदितार्थतन्त्राः, होती और न ऐसा कहने में किसी श्रीचियकी गुंजाइश शृण्वन्ति ये परिपटनिच धमभक्तया' · || २ ||
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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