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________________ फिरण ६-७ तत्वार्थसूत्रका मंगलाचरण २२५ बाच्य यहाँपर प्रधानतः 'सूत्रकार है और ये सत्रकार तत्वार्थ- (कारादिभिरुमास्वामि(ति)प्रभृतिभिः प्रतिपाद्यते।" सूत्रके कर्ता वे ही उमास्वाति प्राचार्य हैं जिनके सूत्रवाक्यको (पृ० ६४) इसी द्वितीयश्लोककी टीकामें "स गप्तिममितिधर्मानुप्रेक्षा- यः प्रणेतास एवं विश्वतत्त्वज्ञताश्रयस्तत्वार्थसूत्रकार परीषहजयचारित्रेभ्यो भवतीति सूत्रकारमतम' वाक्यके-- साथ उद्धत किया है। और आगे भी 'कायवाड मनः तल्लक्षणे ब्रीति' (पृ०८३ )-श्लोकवार्तिक कमयोगः इति सूत्रकारवचनात (पृ०६०) जैसे वाक्योंके (ट) तथोक्त सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य इति मूत्रकारैः (पृ०२८१) साथ उद्धृत किया है । श्लोकवार्तिकादिमे भी सूत्रकारनाम- (च) मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकवलानिज्ञानं, तत्प्रमाणे, इति से सूत्रवाक्यों अथवा सूत्रकारके मतका उल्लेख पाया सूत्रकारवचनात् (पृ० २८१)-प्रष्टमहत्री सुद्रित प्रतिम 'सूत्रकार: ऐसा पाठ है जो अशुद्ध जान उक्त श्लोकके अनन्तर ही प्राप्तपरीक्षामें परमेष्ठिका पड़ता है, उसके स्थानपर 'सूत्रकारादिभि:' होना चाहिये। जो गुणस्तोत्र उद्धत किया है और जिसे टीकामें प्रस्तावना- क्योंकि विद्यानन्दने अन्य के द्वितीय पद्यम श्राए हुए 'मुनिवाक्य द्वारा शास्त्रकी (तस्वार्थसूत्रकी) आदिमें सूत्रकार पुङ्गा:' पद के लिये स्वोपज्ञ टीकाम 'सूत्रकारादयः' पदका (उमास्वाति) द्वारा कहा हुआ बतलाया है तथा जिसपर ही प्रयोग किया है और उपसंहारमे वही बात कही गई है जो स्वोपज्ञ टीका सहित प्राप्तपरीक्षा रची गई है वह अपने शुरूमे प्रस्तुत की गई थी। इसमें विद्यानन्द के पूर्वापर प्रस्तावना-वाक्य-सहित इस प्रकार है कथनकी संगति भी ठीक बैट जाती है । इसके सिवाय, "किं पुनस्तत्परमेट्रिनो गणस्तोत्रं शास्त्रादी सूत्रकारा अष्ठमहस्सीम भी उन्दाने 'माक्षात्प्रबुद्वाशेषतत्वाथेन च प्राहुरितिनिगद्यते मुनिभिः सूत्रकारादिभिरभिष्ट्रयते' इम वाक्यमे - सूत्रकारामाक्षमार्गस्य नेतारं भेतारं कर्मभूभताम् । दिभिः' पदका स्पष्ट प्रयोग किया है। मुद्रित तथा हस्तज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥३॥ लिग्विन प्रतियोम की इस प्रकार की अशुद्धिका होना कोई इससे स्पष्ट है कि यह मंगलश्लोक, जिसे लेखकेशुस्में अमाधारण बात नहीं है। ऐमी स्पष्ट पकड़ी जाने वाली उद्धृत किया गया है, विद्यानन्दकी दृष्टिमं सूत्रकार उमास्वाति अशुहिया अम्मर देग्यनेमे पाती हैं । प्राप्तपरीक्षा-टीका की कृति है और उनके शास्त्र तत्वार्थसूत्रकी आदिमे कहा की उक्त पंक्तियोंसे १० पंक्तियोके अनन्तर ही मंद्रित प्रति के उर्स। ६४ वे पृष्ठपर टीकाका एक पद तत्वार्थविद्यानंहुश्रा मंगलाचरण है। आप्तपरीक्षाकी टीकामें इस मंगलश्लोककी व्याख्याका उपहार करते हुए विद्यानन्दने इस महोदयालंकारपु” इम रूपमे छपा है जो साफ तौर पर मंगलश्लोक्के लिये साफ तौरपर सूत्रकारके साथ उमास्वाति अशुद्ध जान पड़ता है । क्यो क एक तो इसम विद्यानंदका (स्वामी) का नाम भी दे दिया है, जैसाकि उसकी निम्न 'द' अक्षर छूट गया है और दूसरे 'लंकारेषु' के पहले या पंक्तियों से प्रकट है तो 'द्य' अक्षर छूटा हुया मालूम होता है, जिससे 'श्रादि' शब्द के द्वारा अन्य ग्रन्थ अथवा ग्रंथोका भी ममावेश हो “माक्षान्मोक्षमार्गस्य मकलबाधकप्रमागरहितस्य मके । अथवा 'देवागम' अलंकारका नाम छूटा दृश्रा * जैसाकि नीच लिखे कुछ नमूनोसे प्रकट है है अन्यथा, तत्वार्थालंकार और विद्यानन्दमहोदया(क) सूत्रकारण तु परमतव्यवच्छेदेन प्रमाणार्पणात् 'गुण- लंकार इन दो ग्रन्योंके लिये बहुवचनका प्रयोग नहीं हो पर्ययवद् द्रव्यमिति' सूत्रितम् । (पृ० ११२ ) सकता था । बहुवचनका प्रयंग तीसरे ग्रन्थके नाम श्रथवा (ख) यस्माद्-श्राद्ये पराक्ष मत्याह सूत्रकार: ( पृ० १८२) मंकेतको जरूर माँगता है । साथ ही विद्यानन्दमहोदय' (ग) इत्यशेषविवादाना निरासायाह सूत्रकृत्-'जीवाजीवा- के साथ मे 'अलंकार' शब्द भी कुछ खटकता हुअा जान स्रयबन्धनिर्जरामोक्षास्तत्वं ।' (पृ०६१) पड़ता है; क्याकि अभी तक इस ग्रन्यके लिये अन्यत्र (घ) तथा मूत्रकारोऽत्र 'तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं, इति कहीं भी 'अलंकार' शब्द का प्रयोग देखने में नहीं आता।
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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