SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२६ अनेकान्त [वर्ष ५ इस उल्लेखपरसे इस विषयमें कोई सन्देह नहीं रहता लेखन-शैलीका ध्यानसे समीक्षण करते हैं तब यह उलझन कि उक्त श्लोकको शास्त्रकी-आदिमें मंगलरूप में प्रथम प्रयुक्त सुलझ जाती है, प्राचार्य विद्यानन्दकी शैलीकी यह विशेषता करने वाले प्राचार्य उमास्वाति है, और इस लिये यह है कि वे अपने पूर्ववर्ती किसी भी प्राचार्यको सूत्रकार और उन्हींकी कृति हैं। दूसरे प्राचार्य जिन्होंने इस श्लोकको पूर्ववर्ती किसी भी ग्रन्थको सूत्र लिखते हैं। उदाहरणार्थअथवा इसमें प्रयुक्त हुये प्राप्तके विशेषणोंको अपनाया है तत्वार्थश्लोकवार्तिक (पृ० १८४) में वे अकलकदेवका वे 'पादि' तथा 'प्रभृति' शब्दों के बाक्य उत्तरवर्ती श्राचार्य सूत्रकार शब्दमे तथा राजवार्तिकका सूत्र शब्दसे उल्लेख है। उन्हीं में पूज्यपाद प्राचार्यका समावेश है, जिन्होंने करते हैं - तेनेन्द्रियानिन्द्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारं अपनी स्वार्थ सिद्धि में इस श्लोकको अपनाया है। यदि यह साकारग्रहरणम इत्येतत् सूत्रोपात्तमुक्त भवति । ततः श्लोक पूज्यपाद प्राचार्यकी कृति होता तो विद्यानन्द अपने प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः सष्टं साकारमजसा । द्रव्यपर्याय, उक्त वाक्यमें उमास्वाति' के स्थानपर उन्हींका नामोल्लेख सामान्यविशेषार्थात्मवेदनम ॥ सूत्रकारा इतिज्ञेयमाकरते और 'उमास्वाति' का नाम कदापि न देते। कलंकावबोधने।" इस अवतरणमें इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्ष' श्रीविद्यानन्दके ग्रन्थोंकी इस सारी परिस्थितिके सामने वाक्य राजवार्तिक (पृ. ३८) का है तथा 'प्रत्यक्षलक्षणं' मौजूद होते हुए यह कहना कि 'उक्त मंगलश्लोक विद्यानन्द श्लोकन्यायविनिश्चय (पृ. ३) का है। प्राप्तपरीक्षा (पृ. के मतानुसार प्राचार्य उमास्वातिकी कृतिरूप तत्वार्थशास्त्र ६४) मे ही वे "तत्त्वार्थसूत्रकारैः उमास्वामिप्रभृतिभिः" का मंगलाचरण नहीं है किन्तु उसकी टीका सर्वार्थ सिद्वि के शब्द लिखकर न केवल उमास्वामीको ही सूत्रकार लिखते हैं। प्रारम्भमे प्रन्थोत्पत्ति-विषयक भूमिका बाँधते समय स्वयं अपि तु प्रभृतशब्दसे अन्य पूज्यपाद भाचार्योंका भी सूत्रकार पूज्यपादने उसे रच है' और यहाँ तक दावा बांधना कि होना सूचित करते हैं। अत: मात्र सूत्रकारके नाम 'मोक्षमार्गस्य "वस्तुत: यह मंगलश्लोक आचार्य पूज्यपादने ही बनाया। नेतारं' श्लोकको उद्धृत करने के कारण विद्यानन्दका झुकाव है," "इस मंगलश्लोकको उमास्वातिकृत किसी भी तरह उसे उमास्वातिकृत माननेकी ओर है, यह नहीं कहा जा नहीं माना जा सकता," मुझे तो अतीव भ्रममूलक जान सकता । जो विद्यानन्द राजवातिकको सूत्र तथा अकलङ्कको पड़ता है। मैं समझता है कोई भी सहृदय एवं विचारवान् भी सूत्रकार लिख सकते हैं, वे यदि साधसिद्धिकारको विद्वान्, जिसके सामने विद्यानन्दके ग्रन्थोकी उक्त सारी सूत्रकार लिखते हैं, तो कोई अनहोनी या पाश्चर्यकी बात नहीं है। परिस्थिति हो, ऐसा कहने अथवा दावा करने के लिये तय्यार । क्योकि सर्वार्थसिद्धि तो राजवार्तिक या श्लोकवार्तिक के लिये नहीं होगा । मालूम होता है किसी ग़लत फहमीकी वजहसे आधारभूत सूचनाकारिणी होनेसे सूत्रकल्प ही रही है।" शास्त्रीजीकी गलत धारणा बन गई है और उसीका यह इससे मालूम होता है कि शास्त्रीजी को जब यह जान सब परिणाम है। पड़ा कि विद्यानन्द तो स्वयं अपनी प्राप्तपरीक्षामे इस मंगलश्लोकको सुत्रकार-नामके साथ उद्धृत करते हैंविद्यानन्दकी दृष्टिमें सूत्र और सूत्रकार सुत्रकारकृत बतलाते हैं और 'सूत्रकार' शब्द आमतौर पर एक दूसरी भारी गलतफहमी शास्त्रीजीने और भी तत्वार्थसूत्रके कर्ता उमास्वातिके लिये प्रसिद्ध है तब आपने प्रदर्शित की है, जिसे देखकर बड़ा ही विस्मय होता है ! प्राप्तपरीक्षाकी टीकामें प्रयुक्त हुये 'सूत्रकार' शब्दके वाच्य आप अपने लेखके मध्यभागमे लिखते हैं :-- पर पर्दा डालनेके लिये विद्यानन्दकी लेखन-शैलीकी 'परन्तु विद्यानन्द प्राचार्य ही प्राप्तपरीक्षा (पृ. ३) के अनोखी कल्पना करके यह सुझानेके चेष्टा की है कि-"वे प्रारम्भमें इसी श्लोकको सूत्रकारकृत लिखते हैं-'किं (विद्यानन्द) अपने पूर्ववर्ती किसी भी प्राचार्यको पुनस्तपरमेष्ठिनो गुणस्तोत्रं शास्त्रादौ सूत्रकाराः प्राहुरिति सूत्रकार आर पूर्ववर्ती किसी भी ग्रंथको सूत्र लिखते निगद्यते मोक्षमार्गस्य .. ..." इस पंक्तिमे यही श्लोक हैं।" साथ में एक असंगत उदाहरण भी दे डाला है, और सूत्रकारकृत कहा गया है। पर जब हम विद्यानन्दकी इस तरह अपने पाठकोंको यह मान लेनेके लिये बाध्य
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy