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अनेकान्त
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लिये उत्सवों पर पढ़ी जाती है।
तिकरूपमें संग्रह किया गया है, एक स्मृतिपटका काम इन उपर्युक्त पाटोमेंसे आज यहां अनेकान्तके देती है जिस पर नजर पड़ते ही अनेक तात्विक पाटकों के लिये 'चूनड़ी' ग्रन्थको प्रकाशित किया जाता विषयोंकी स्मृति हो आती है और उनकी याद सदैव है, जो अपभ्रंश भाषामें हैं।
ताजा बनी रहती है। जिन स्त्रियोंको चून्डी छपानेका 'चूनड़ी' एक प्रकारकी रंगीन ओढ़नी होती है, शौक है वे यदि इस प्रकारकी तात्विक चर्चाओं वाली जिसे छीपे-रंगरेज रंगते और सूतमे बांध-बांधकर चूनड़ी छपाकर योढ़ा करें तो कितना अच्छा हो । उसमें रंग-बिरंगी बूदे डालते हैं अथवा उमपर बेल- चनड़ीछपानकी यह कल्पना अच्छी सुन्दर जान पड़ती है। बूटे आदि छापते हैं । चूनड़ीका दूसरा नाम चुण्णी- इस ग्रन्थके कर्त्ता माथुर-संघीय भट्ठारक वालचूर्णी भी है जिसका अर्थ होता है विखरे हुए प्र- चन्द्र के शिष्य भविनयचन्द्र हैं, जिन्होने इमे गिरिपुर कीर्णक विषयोका लेखन अथवा चित्रण । ग्रन्थकारने (डूगरपुर-गिरनार?)से निवास करते हुए अजयनरेशके भोली महिलाद्वारा की गई पतिसे ऐसी चूनड़ीके गजविहार में बैठकर बनाया था। ग्रंथ पर एक विस्तृत लिखाने-छपानेकी प्रार्थनाको हृदयस्थ करके जिमे अोढ़ संस्कृत टीका भी है परन्तु वह किसकी बनाई हुई है कर जिनशासनमें विचक्षणता प्राप्त होवे, इस ग्रन्थ- यह टीका परसे उपलब्ध नहीं होता। विनयचंद्र मुनिकी रचना की है और इसका नाम चूनड़ी या चूड़िया की 'कल्याणकगसु' और 'चुनड़ी' इन दो रचनाओ के रक्खा है तथा इसे चुराणी भी बतलाया है। यह सब मिवा अन्य रचनाएँ अपने को ज्ञात नहीं हैं, जिन्हें नाम ग्रन्थगत प्रवक और ३,४, १५, ३०, ३१ नंवर मालूम हो उन्हें प्रकट करना चाहिये । अस्तु इस के पद्योंमें पाये जाते हैं। और इस लिये यह रचना- प्रास्ताविक निवेदनके बाद मृल 'चूनडी' ग्रंथको जिसमें जैनशासन संबंधी कितनी ही चर्चाओका सांके नीचे उद्धृत किया जाता है।
ग्रन्थारम्भ विण' वंदिवि पंच-गुरु,
भवियह इह चूनडिय बग्वारगाउँ ॥ २ ॥ मोह-महा-तम-तोडण-दिगायर ।
हीग-दंत-पति-पयडंती। णाह लिहावहि चूड़िय,
गोरउ पिउ बोलइ वि-हमंती ।। मुद्धउ प-भणइ पिउ जोडिवि कर । प्रवकं । मुदर जाइ सु-चेइहरि', पणवउँ कोमल-कुवलय-रायणी।
महु दय फिजर मुहय मुलक्खरण । [अमिय-गब्भ जण-सिव-यर-वयणी।]"
लइ छिपावहि चुनडिय, प-सरिवि मारद-जोण्ह जिम,
हरें जिण-मामरिण मुट्ट, वियववरण |॥ ३॥ जा अंधारउ सयलु वि गगासइ !
वल्लह ! जइ ण लिहावणि आहि । सा महु रिण-वसउ माणसहि,
छिपुलडा महुं वयणु सुणावहि ।। हंस-वधू जिम देवि मगमइ' ॥१॥
निरिण लोय तिहि-मंगि-जुय, माथुर-संघहें उदय मुणीसरु ।
चउ-दह रज्जु लिहहि उट्ठ-त्त । पणविवि बालइंदु गुरु गण-हरु ।।
सत्त रज्जु तलि सुर-गिरिहें, जंपइ विणय-मयंकु मुणि,
उपरि सत्त सत्त पिंड-तं ॥ ४ ॥ आगमु दूगमु जइविण जइ वि ण जाणउँ।
मेरु-महा-गिरि-जंवू दीवहु । मा लेजउ अवराहु महु,
खार-समुद्द-परिट्ठिय-सीमहु ।। १-ब्रेकेट वाला पाठ मूल प्रति मे त्रुटित है उम अपनी अोर दीव-समुद्द अमंख गरिण, से पूरा किया गया है।२-सरस्वतीदेवी।
३-चैत्यालयमे । ४-मुभग ।