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________________ ३७४ अनेकान्त [वष ५ तीमरे, सर्वार्थ मिन्द्वि और राजवार्तिक्में मंगलाचरण की चरण अथवा सूत्रकार कृत नहीं लिखा है, तभी वे यह व्याख्याको आवश्यक बतलाते हुए जो हेतु दिया है-मूल प्रतिपादन करनेमे समय हो सकते हैं कि "इस मंगल श्लोक के किसी भी अंश अथवा शब्दको विना व्याख्याके न को सूत्रकार कृन लिखनेवाले सर्वप्रथम श्रा० विद्यानन्द हैं।" छोड़नेरूप व्याख्यापद्धतिको हेनुरूप प्रस्तुत किया है वह साथ ही, यह भी बतलाना होगा कि श्रा० विद्यानन्दकी पक्षाव्यापक एवं सदोष है, क्योंकि इन दोनों ही टीका ग्रन्थोंम शुद्ध मनोवृत्तिपर जो यह गंभीर आरोप अथवा लांछन मलके कितने ही पद-वाक्य तथा शब्द अव्याख्यान हैं और लगाया गया है कि उन्होंने यह जानते हुए भी कि कितने ही सूत्रोंके उत्थान-वाक्य भी माथमे नही हैं; जैसा उनकी उफ. मंगल नोक-विषयक धारणाको पूर्वाचार्यपरंपरा कि पहले इसी लेखमे 'माक्षेप परिहार-समीक्षा' उपशीर्षकके का समर्थन प्राप्त नहीं है, कुछ कारण सम 'प्रबल बाधक नीचे प्रत्यासेपनं. ५ ६ के समाधानोंमे स्पष्ट करके बत- हैं और यह 'पर्याप्त बलवनी' भी नही है, फिर भी उसे लाया जा चुका है। फिर मंगलाचरणकी व्याख्याकी तो अन्यत्र प्राप्तपरीक्षादिके द्वारा (और पकारान्तरसे शोकवात्तिक बात ही क्या है, जो ग्रन्थका प्रधान अंग नहीं होता, और के द्वारा भी) चलानेका प्रयत्न किया है. इसके लिय शास्त्रीजीके इसलिये जिसकी व्याख्या करना कोई अनिवार्य (लाज़िमा) पास क्या प्राधार है? क्या वे इसमे विद्यानन्दके निजी कार्य भी नहीं होता, बल्कि उसका करना-न करना च्या- स्वार्थादिक विम्मी प्रेरक कारणको बतला सकते हैं और ख्याकारोंकी रुचिविशेषपर अवलम्बित रहता है। यह भी बतला सकते हैं कि जब श्रा० विद्यानन्द अपनी इस तरह पहली बातके समर्थन में जो युक्तिवाद उप- मान्यताका अन्य ग्रन्या द्वारा खुला प्रचार कर रहे थे तब स्थित किया गया है वह निदोष न होकर दोषोंमे परिपूर्ण उन्हें श्लोकवार्तिक में उक श्लोकको नम्वार्थस्यका अंग है-श्राचार्य विद्यानन्दकी मान्यताके विषयमे पूर्वपरम्पराके मानकर उसकी खुली व्याख्या करने में किस बातका भय प्रभावको सिद्ध करने में समर्थ नहीं है । और इसलिये उपस्थित था? और वह भय खुली व्याख्या न करनेमात्रये मान्यताके आधार पर विचार करते हुए उसकी भूमिकामे कैसे दूर होगया. जबकि विद्यानन्दजी लोकातिकमें ही शास्त्रीजीने जो यह प्रतिपादन किया है कि 'उक्त मंगल- प्रकारान्तरमे उसकी व्याख्या कर रहे हैं और उसकी सूचना श्लोकको सूत्रकारकृत लिखने वाली 'सर्वप्रथम' श्राचार्य भी अपनी बात परीक्षा-टीदाम दे रहे हैं । यदि शास्त्रीजी विद्यानन्द हैं, उन्हें जब अपनी धारणाके पक्षम पूर्वाचार्यों यह मब नहीं बतला सकेंगे तो उनका उक्त प्रतिपादन की परम्परा नहीं मिली और नोकवातिकमे उस श्लोक्का केवत्व प्रतिपादन ही रहेगा और इसलिये विदृष्टिम उम व्याख्यान करना प्रबल बाधक जेंचा तो वे अन्य प्रकारमे का कुछ भी मल्य नहीं हो सकेगा। उसके पदोंकी व्याख्या कर जानेपर भी नावार्थसूत्रके अंग. () आधार-विचार-- रूपसे उसे अव्याख्यात रखनेके कार्यमें पूज्यपाद श्रीर अक- अब ग्ही दसरी मान्यताके श्राधार वाली बान, शास्त्री लंक प्रादिक शामिल होगये हैं, इसमें कुछ भी सार नहीं जी यह स्वीकार करके कि "यह तो विद्यानन्द जैसे प्राचार्य है। ऐसा प्रतिपादन करके शास्त्रीजीने जाने-अनजाने एक के लिये कम सम्भव है कि वे ऐसी धारणा बिना किसी ऐसी भारी जिम्मेवारी को अपने ऊपर ले लिया है जिसका पूर्वाचार्यवाक्य के अवलम्बनके बना लेते," अवलंबकी अष्ट निर्वाह करना उनकी शकिसे बाहरकी चीज़ है, क्योंकि शतीके निम्न वाक्यको विद्यानन्दकी उग धारणा-मान्यताऐसे प्रतिपादनकी समीचीनता श्रथवा यथार्थताको व्यक्त का श्राधार बतलाते हैंकरने के लिये उन्हें यह बतलाना होगा कि प्रा. विद्यानन्द "देवागमेत्यादि मंगलपुरम्मरस्तवविषय परमान के सामने मूल तथार्थसूत्रकी जो प्रतियों थीं, जो दूसरी गुणातिशयपरीक्षामुपक्षिातैव म्वयं ." टीकाएँ थीं और तवार्थसूत्रके उल्लेम्व-विषयक जो दूसरा इस वाक्ससे ठीकपूर्ववर्ती दो मंगल पथोंमे अक्लंकर साहित्य था उस सब सामग्रीको उन्होंने देख लिया है और ने क्रमशः अहरसमुदयकीनद्वाणीकी और समन्तभद्दकी स्तुति उसमें कहीं भी उन्क मंगलश्लोकको तम्वार्थसूत्रका मंगला- करके समन्तभद्रकी एक कृनिकी वृनि लिम्बनेकी प्रतिज्ञाकी है
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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