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किरण ३-४]
वादिराजसूरि
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भी लगभग यही बात कही है। हमारा अनुमान है इसका उल्लेख किया गया है। कि इसी सूयंशतकस्तवनको कथाके अनुक्रणपर २ यशोधरचरित-यह एक चार सर्गका ओटावादिराजमूरिक एकीभावम्तोत्रकी क्था गढ़ी गई है।
सा खण्डकाव्य है, जिसमें सब मिलाकर २६६ पद्य हैं। हिन्दुओंके देवता तो 'कन्तु मकन्तु मन्यथाकतु इसे तंजोरके स्व० टी० एस० कुप्पूस्वामी शास्त्रीने बहुत समर्थ' होते है, इमलिये उनके विषयमें इस तरहकी
समय पहले प्रकाशित किया था जो अब अनुपलभ्य कथायें कुछ अर्थ भी रखती हैं परन्तु जिन भगवान न है। इसकी रचना पार्श्वनाथचरितके बाद हुई थी। तो स्तुतियों स प्रसन्न होते हैं और न उनमें यह क्योंकि इसमें उन्होने अपने को पार्श्वनाथचरितका मामर्थ्य है कि किमी के भयंकर रोग को बात की बात
या मे दूर करदें। अतएव जैनधर्मक विश्वासों के साथ कथाओका कोई सामञ्जस्य नहीं बैठता है।*
३ एकीभावस्तोत्र-यह एक छोटा-मा २५ पद्यों ग्रन्थ-रचना
का अतिशय सुन्दर स्तोत्र है और 'एकीभावंगत वादिराजसूरिक अभी तक नीचे लिखे पाँच ग्रन्थ
इवमया' से प्रारम्भ होने के कारण एकीभाव नामसे उपलब्ध हुए हैं -
प्रसिद्ध है। १ पार्श्वनाथ रत-यह एक - मर्गका महा
४ न्यायविनश्चयविवरण--यह भट्टाकलंकदेवके काव्य है आर माणिचन्द्र जैनग्रन्थमालामे प्रकाशित हो 'न्यायविनश्चय' का भाष्य है और जैन न्याय के प्रसिद्ध चुका है। इसकी बहुत ही सुन्दर मरम और प्रौढ़ ग्रन्थों में इसकी गणना है। इसकी श्लोकसंख्या २०,००० रचना है। 'पार्श्वनाथकाकुत्स्थचरित'५८ नाममे भी है। अभी तक यह प्रकाशित नहीं हुआ है। शतक मूर्यशनका पर्यायमिति ।"
५ प्रमाणनिर्णय-प्रमाण शास्त्रका यह छोटा-सा १७श्रीमन्मयूरभट्टः पूर्व जन्मदुष्टहेतुकलितकुष्ठजुष्टो " इत्यादि। म्वतन्त्र ग्रन्थ है, जिसमें प्रमाण, प्रत्यक्ष, परोक्ष और * यहो जा निकर्ष निकाला गया है वह जेनमिद्धान्तकी आगम नामके चार अध्याय हैं। माणिकचन्द्र-जैनग्रन्थहाटसे ममुचित प्रर्तन नहीं होता। इसके लिये मैं लेम्बक माला में प्रकाशित हो चुका है। महोदयका ध्यान उम तच्चकी ओर आकर्षित करना
अध्यात्माएक-यह भी एक छोटा-सा पाठ पद्यों चाहता हूँ जो स्वामी समन्तभद्र के निम्न वाक्यम
का ग्रन्थ और माणिकचन्द्र ग्रन्थमालामे प्रकाशित हो मंनिहिन है
चुका है। पर यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता सुहृत्त्वयि श्री-सुभगवश्नुते द्विषत्वयि प्रत्ययवधलीयते।
कि इमक कर्त्ता ये ही वादिगज हैं। भवानुदासीनतमस्तयोरपि प्रभो परं चित्रमिदं तवे हितम् ।
(स्वयंभूस्तोत्र)
त्रैलोक्यदीपिका-इसनामका ग्रंथ भी वादिराज
-सम्पादक सूरिका होना चाहिए, जिसका संकेत ऊपर टिप्पणीमे १८ श्रीपार्श्वनाथकाकुत्स्थ चरितं येन कोनितम् ।
उद्धृत किये हुए "त्रैलोक्यदीपिका वाणी" श्रादि पटामें नेन श्रीवा। दराजेन रब्धा गाशोधरी कथा ॥१-५॥ यशोधरच० मिलता है। स्व० मट माणिकचन्द्रजीने अपने यहाँके
पहले मैंने मनमे श्रीपार्श्वनाशकाकायचरित' पदसे ग्रन्थ-संग्रहकी प्रशस्तियोका जो जिम्टर बनवाया था पार्श्वनाथचरित और काकुत्स्थ चरिन नामके दो ग्रन्थ उससे मालूम होता है कि उक्तसंग्रहमें त्रैलोक्यदीपिका' समझ लिये थे । मेरी हम भूल को मेरे बादक लेखकाने भी नामका एक अपूर्ण ग्रन्थ है जिसमें श्रादि के दम और दुहराया है । परन्तु ये दो ग्रन्थ होते तो द्विवचनान्त पद अन्तके ५८ वें पत्रमे आगेके पत्र नहीं हैं। सम्भव है होना चाहिए था, जो नहीं है । 'काकुत्स्थ' पार्श्वनाथके, यह वादिराजसूरिकी ही रचना हो । इसे करणानुयोग वंशका परिचायक है।
का ग्रन्थ लिखा है।