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________________ १४२ अनेकान्त वर्ष ५ यदि सुवर्ण हो जाय तो क्या आश्चर्य है ४?" अर्थात् मय कर दिया था, तब ध्यानके द्वारा मेरे अन्तरमें चन्द्रकीर्तिजी उक्त कथासे परिचित थे। परन्तु जहाँ प्रवेश करके यदि आप मेरे इस शरीरको सुवर्णमय कर तक हम जानते है यह कथा बहुत पुरानी नही है और दे तो कोई आश्चर्य नही है। यह एक भक्त कविकी उन लोगों द्वारा गढ़ी गई है जो ऐसे चमत्कारोसे ही सुन्दर और अनूठी उत्प्रेक्षा है, जिसमें वह अपनेको श्राचार्यों श्रार भट्टारकों की प्रतिष्ठाका माप किया करते कर्मोकी मलिनतामे रहित सुवर्ण या उज्ज्वल बनाना थे। अमावसके दिन पूनों के चन्द्रमाका उदय कर देना, चाहता है।। आगे ५, ६, ७ वे पद्योंमें भी इसी तरह चवालीस या अड़तालीस बेडियोको तोड़कर कैदमे से के भाव हैं:जब आप मेरी चित्तशय्यापर विश्राम करेगे, बाहर निकल आना, सॉपक काटे हुए पुत्रका तो मेरे ल शोको कैस सहन करेंगे? आपकी स्याद्वादजीवित हो जाना आदि, इस तरहकी बार भी अनेक वापिकाम स्नान करने में मेरे दुःख-सन्ताप क्यों न चमत्कारपूर्ण कथाएँ पिछले भट्टारकों की गढ़ी हुई दूर होगे ? जब आपके चरण रखनेस तीनो लोक प्रचलित है जा असंभव और अप्राकृतिक तो हैं ही* पवित्र हो जाते है तब सर्वाङ्गरूपस आपको स्पर्श जैनमुनियोक चरित्रको और उनके वास्तविक महत्व करने वाला मेरा मन क्यो कल्याणभागी न होगा? को भी नीचे गिराती हैं। आदि। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि सच्चे मुनि सम्राट हर्षवर्धनकै समयक विषयमे भी जो अपने भक्तके भी मिथ्या भाषणका समर्थन नही करते महाकवि वाणके सुसर और सूर्यशतक नामक स्तोत्रक और न अपने रोगको छपानेकी ही कोशिश करते हैं। कर्ता हैं एक ऐसी ही कथा प्रसिद्ध है । मम्मटकृत यदि यह घटना सत्य होती नो मल्लिपेण- काव्यप्रकाशक टीकाकार जयरामने लिखा है कि प्रशस्ति (श० सं० १०५०) तथा दमरे शिलालेखोंमें मयूर१५ कवि सौ श्लोकोसे सूर्यका स्तवन करके कुष्ठ जिनमें वादिराजमूरिकी बेहद प्रशंसा की गई है, इमका रोगसे मुक्त हो गया। सुधासागर नामक दुसरे टीकाउल्लेख अवश्य होता । परन्तु जान पड़ता है तब तक कारने लिखा है कि मयूर कवि यह निश्चय परक कि इस कथाका आविर्भाव ही न हुआ था। या तो कुष्ठसे मुक्त हो जाऊँगा या प्राण ही छोड़ दूंगा - इसके सिवाय एकीभावके जिस चौथे पद्यका हरिद्वार गया और गंगा-तटक एक बहुत ऊँचे झाड़की श्राश्रय लेकर यह कथा गढ़ी गई है उसमें ऐसी कोई शाखापर सौ रस्सियो वाले छीकम बैठ गया और बात ही नही है जिससे उक्त घटनाकी कल्पना की सूर्यदेवकी स्तुति करने लगा। एक एक पद्यको कहकर जाय । उसमे कहा है कि जब स्वर्गलोकसे माताके वह बीकेकी एक एक रस्सी काटता जाता था । इस गर्भ में आनेके पहले ही आपने पृथ्वी मंडलको सुवर्ण- तरह करते करते सूर्य देव सन्तुष्ट हुए और उन्होंने १४ हे जिन, मम स्वान्तगेहं ममान्तःकरणमन्दिरं त्व प्रतिष्ठः। . उसका शरीर उसी समय निरोग और सुन्दर कर सन् यत इदं मदीय कुष्ठरोगाक्रान्तं वपुः शरीरं सुवर्णी दिया१६ । काव्यप्रकाशके तीसरे टीकाकार जगन्नाथने करोपि, नकि चित्रं तकिमाश्चर्य न किमपि आश्चर्यमित्यर्थः। १५"मयूग्नामा कवि: शतश्लोकन श्रादित्यं स्तुत्वा कुष्ठान्नि*विद्वान ले वकका यह दावा कहाँ तक ठीक है इम पर स्तीर्णः इति प्रमिद्धिः।। दूसरे विद्वानोको योग शक्ति और मंत्रशक्ति के गहरे १६पुरा किल मयूरशर्मा कुष्ठी कविः क्लेशममहिष्णुः सूर्यप्रसाअनुसंधानको मामने रखकर गंभीर नाके साथ विचार देन कुठान्निस्तराम प्राणान्वा त्यजाम इात निश्चित्य करना चाहिये । सापके डसे हुए तो अाजकल भी हरद्वारं गत्वा गंगातटे अत्युच्चशाखावलम्बी शतरज्जुमंत्रादिकके प्रभावसे अच्छे होते हुए देखे जाते हैं, इस शिवय अधिरूढः सूर्यमस्तौषीत । अकरोच्चै केकपद्यान्ते में असंभाता अप्राकृतिकता कुछ भी नहीं है। एकैकरज्जुविच्छेदं । एवं क्रियमाणे काव्यतुष्टं। रविः सद्य एव -सम्पादक निरोगा रमणीया च तत्तनुं अकार्षांत । प्रसिद्धं तन्मयूर
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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