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________________ साहित्य-परिचय और समालोचन १ भारतीयदर्शन-लग्वक, श्रीबल देव उपाध्याय शास्त्राणि जम्बुका विपने यथा ।न गर्जति महाशक्तिर्याएम०ए० माहित्याचार्य, प्रोफेसर हिन्दू-विश्व-विद्यालय, वद्वेदान्तकेशरी ॥"यह आक्षेप-परक पद्य इसका निदकाशी । प्रकाशक, पं. गौरीशंकर उपाध्याय जतनवर, शक है । तटस्थवृत्ति एवं शोध-खोजकी दृष्टि से लिखी बनारम। पृष्ठ संख्या, सच मिलाकर ६२०। साइज, जाने वाली ऐतिहासिक और तात्त्विक विवेचनाओंक Fox३० सोलह पेजी । मूल्य, ३| रु.1 अवसर पर कट्टर साम्प्रदायिकताके द्योतक ऐसे पद्यको प्रस्तुत प्रन्थका विषय चार खंडोमें विभाजित है अपनाकर प्रस्तुत करना उचित नहीं कहा जा सकता। और उनम १६ परिच्छेदों द्वारा भारतीयदर्शनोंका उमसे विवेचनका महत्व गिर जाता है। प्रत्येक दर्शन मंक्षिप्त परिचय कगया गया है। प्रथम खंडमें भारतीय __ अपनी अपनी असाधारण विशेषताओंको लिय हए दर्शनका उपोद्घात, श्रीन दर्शन और गीतादर्शनका कथन है, फिर अद्वैतवेदान्त ही सर्वोपरि है यह नहीं कहा है। दमर ग्लंडम चार्वाक, जैन और बौद्धदर्शनका जा मकता और न दूमर दर्शनां तथा उनके शास्त्रोको यानी याय जम्बुक (गीदड़) मदृश्य बतलानेसे उसकी कोई प्रतिष्ठा वैशपिक. माग्व्य, योग, कममीमामा और अद्वैत वेदात हा हा मकती है। रूप पट्दर्शनोका वर्णन है। चतुर्थवडमेतत्रांक रहस्य जेनदशेनका विवेचन करते हा यपि उसकी का विवेचन दिया हुआ है । उपोद्घानमे भारतीय चारित्र-मीमांसाको महत्वपूर्ण बतलाया गया है तथा दर्शनोकी पाश्चात्य दशनोसे महत्ता एवं व्यापकताका भारतक एक छत्र सम्राट चन्द्रगुप्तमौर्यको भी जैनदिगदर्शन करते हुए भारतीयदशनों के क्रमिक विकाम धर्मानुयायी लिखा है परन्तु लग्बकने जनदर्शनकी तथा उनके उदय-अभ्युदयका संक्षिप्त परिचय और उनकी ममीक्षाका जो मिम्न शब्दोद्वाग नतीजा निकला है पारस्परिक ममानताकरोचक कथन दिया है। ग्रन्थम वह किसी तरह भी ठीक नहीं कहा जा सकता। विविध दशनाक विवेचनके अवसरपर प्रत्येक दर्शन उसमें शंकराचाय के द्वारा 'म्याद्वाद' का मामिक खंडन की झंयमीमांमाके साथ साथ चारित्रमीमांसाका भी किया जाना बतलाना, और स्याद्वादको विराम दन मंक्षिप्त परिचय देदिया गया है, जिमम पाठकोको सभी वाले विश्रामगृह जितने महत्वका प्रकट करना बहुत ही दर्शनोकी कितनी ही ज्ञातव्य मामग्राका एकत्र संकलन आपत्तिक योग्य जान पड़ता है। शकराचार्यनं तो मिल जाता है और उमसं विचार-विनिमय करनेमें स्याद्वादक रहस्यको ममझा ही नहीं । लोकमान्य तिलक बहुत कुछ महूलियत होजाती है। समूचे ग्रन्थकी आदि कितने ही जेनेतर प्रौढ विद्वानोन भी इम लग्वन-शैली बहुत कुछ रोचक, उदार तथा भाषा मॅजी म्वीकार किया है । समझा होता ना वे कदापि स्याद्वाद हुई है, और इसम ग्रन्थक पढ़ने में आनन्द आता है- को संशयवाद न बतलाते और न लेखक महाशय ही वह भारमा मालूम नहीं होता। 'म्यान' का अर्थ 'शायद' तथा 'संभव' प्रकट करते, हाँ. लखन जहॉ पस्तकको पठनीय और संग्रह- जो जेनष्टिक चिल्कुल विपरीत है । अम्त, आपके वे गीय बनानका भरमक प्रयत्न किया है वहाँ कहीं कहीं शब्द निम्न प्रकार हैं:जाने-अनजान दृमरे दर्शनांके महत्वको गिगन "इमी समन्वय-टिम वह पदाकि विभिन्न रूपा अथवा कम करनकी चेष्टा भी की है। चुनाँचे अौत का समन्वय करता जाता, तो समग्र विश्वम अनुस्यन वेदान्नकी समीक्षा के अन्त में दिया हुआ "नावद्गन्ति परमनत्व तक अवश्य ही पहुँच जाता। इसी दृष्टिको
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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