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________________ अनेकान्त (वर्ष ५ उसके बाद भी उतने ही उतने स्पर्धकोंका बंध हो उसे उत्तर कृतिप्रदेशबंध अवस्थित बंध जानना। (४) प्रवक्तव्यबंधका तात्पर्य है कि प्रबंधके अनंतर उत्तरमें मूलप्रकृति प्रदेशबंधके समान योजना करना। बंधका होना। उपरोक्त संक्षिप्त प्रकृतिबंधके अवतरणों तथा अन्य तीन इस अर्थपदमे स्वामित्वमे लेकर अल्पबहुस्वपर्यन्त तेरह बंधोंकी साधारण वर्णनसूचीसे महाबंधकी शैली और अनुयोगद्वार हैं। पदनिक्षेप प्रमेयका कुछ अंदाजा हो सकता है, वैसे तो विना अथक (१) इसमें समुत्कीर्तन, स्वामित्व तथा अल्पबहुरव ये प्रकाश में पाए अभ्यासीको ग्रंथकी गंभीरता, मार्मिकता तथा तीन अनुयोगद्वार होते हैं। लोकोत्तरपनेकी यथार्थ कल्पनाका होना असंभवप्राय है। (२) वृद्धि बंधमें समुत्कीर्तनसे लेकर अल्पबहुस्खपर्यन्त इस ग्रंथका प्रथम भाग अनुवाद-सहित तैयार कर नेरह अनुयोगद्वार पाए जाते हैं। लिया है। यदि कागजका प्रभाव अंतराय न बना होता तो (३) अध्यवमान समुदाहाम्मे ये द्वादश अनुयोगद्वार अब तक लोगोके हाथमें ग्रन्थ पहुँच सकता था। पहले जानना चाहिए । (१) अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा (२) तो महाबंध ग्रंथ भंडारके बंधन में बढ़ रहा, अब वह स्थान प्ररूणा (३) अंतर-प्ररूपणा (४) कांडक (५) प्रोज कागजके अभावमे बंधा हुभ्रा नज़र आता है, देख वह युग्म (६) षट्स्थान (७) अध.म्तन (८) समय (1) वृद्धि इस धनसे मुक्त होकर कब प्रकाशमे श्राता है? (१०) यवमध्य (११) अध्यवमान (१२) अल्पबहत्व ।। निष्कर्ष-संक्षेप में कहना होगा कि, महाबंध जैन (ब) उत्तरप्रकृति-अनुभागबंध कर्म-साहित्यका अन्यत तेजोमय अथवा दीप्तिपूर्ण ग्रंथ रन है और यह उपलब्ध सभी जैनकर्म माहित्यके लिए उपजीव्य इसमें दो अनुयोगद्वार है। (1) निषेकप्ररूपणा । रहा है। इसके म्वाध्यायसे भावोंमे गगद्वेष मंद होता है (२) स्पर्द्धकप्ररूपणा। और विपाक-विचय धर्मध्यानकी वृद्धि होती है । कर्ताइस अर्थपदम ममुकीर्तन, सर्वबंध. नोपर्वबंध आदि वादियाने तो जीवके भाग्यकी डोर एक परमेश्वरके हाथ में चौबीस अनुयोग द्वार पाए जाते हैं। सौपकर छुट्टी प्राप्त करली, किन्तु जैनियोंने ईश्वरको केवल प्रदशबन्ध-इस बन्धकी मुल तथा उत्तर प्ररूपणाओंका श्रामविकासकी उज्वल अवस्था मानकर प्रत्येक जीवको सार इस प्रकार है अपने अपने भाग्यका निर्माता बताया है, तब फिर वह प्रदेशबन्ध जीवोंका विचित्र परिणमन क्या और कैसे होता है, इस मूल प्रकृतिप्रदेशबंध बातका उत्तर जैनकर्म साहित्यसे ही प्राप्त होता है, उस कर्म मूल में पाठ कर्मोंका भागाभागका विभाग जानना चाहिए। माहित्यक बंध' अंशपर प्रात:स्मरणीय भूतबलि प्राचार्यने इस अर्थपदमे २४ अनुयोगद्वार जानने चाहि । यथा ४० हजार श्लोकामे अत्यन्त गंभीर तथा अप्रतिम शैलीमे स्थानप्ररूपणा, पर्वबंध, नामवंबंधये अल्पबहुत्व पर्यन्त। इस ग्रन्थमे प्रकाश डाला है। भुजगारबंधमे पदनिक्षेप, वृद्धि बंध, अध्यवमान समु- इस ग्रंथगजके अधिक प्रचार न होने का कारण एक तां दाहार तथा जीवयमुदाहार हैं। महाबंधका स्वयं महाबन्धनकी अवस्थामे बहुत समय तक स्थानप्ररूपणाम--योगम्थान-प्ररूपण तथा प्रदेश- रहना है । दुसर विषयकी सूक्ष्मता भी साधारण जनताप्ररूपणा हैं। योगस्थानप्ररूपणाम ये दस अनुयोगद्वार हैं- में ग्रंथक उचित प्रचार न होनम कारण हुई है। अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा, वर्गगाप्र०, स्पर्धकप्रक. अतर, श्राशा है जब यह ग्रंथगज प्रकाशमं प्राण्गा, नम स्थान, अननरोपनिधा, पर पगंपनिधा, समय, वृद्धिप्रा, अधिकमे अधिक जिज्ञासु तथा तत्यप्रेमी लोग ज्ञानवर्धन अल्पाहुन्य। के साथ साथ प्रामकन्यागमे प्रवृत्त होंगे।
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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