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________________ किरण १२] महाधवल अथवा महाबन्धपर प्रकाश ४१५ वृद्धिबंध (१७) भागाभाग (१८) परिमाण (११) क्षेत्र (२०) स्प भुजगार बंध शन (२१)काल (२२)अंतर (२३)भाव (२४)अल्पबहुत्व। स्थितिबंध-इस बन्धकी (क) मूल तथा (ख) उत्तर यहाँ मूलप्रकृति-स्थितिबंधके समान समुत्कीर्तनसे प्ररूपणाओंका सार इस प्रकार है अल्पबहुत्वपर्यन्त तेरह अनुयोगद्वार जानना चाहिए। (क) मूलप्रकृतिस्थितिबंध पदनिक्षेपबंध (१) स्थितिबंधस्थानप्ररूपणा भुजगारबंध इसमें तीन अनुयोगद्वार होते हैं। समुन्कीर्तन, स्वामि(२) निषेकप्ररूपणा व तथा अल्पबहुत्व । (३) पाबाधाकांडकग्ररूपणा (४) अल्पबहुवप्ररूपणा इसमें समुत्कीर्तनसे लेकर अल्पबहुत्व पर्यन्त तेरह इस अर्थपदसे निम्नलिखित २४ अनियोगद्वार होते हैं के अनुयोगद्वार कहे गये हैं। विशेष--यहां तादपत्र नं. १०६, ११२ नष्ट होगए (3) अर्द्धच्छेद (२) सर्वबंध (३) नोपर्वबंध (४) हैं। अत: बहुत अंश छूटा हुआ है। उस्कृष्टबंध (५) अनुत्कृष्टबंध (६) जघन्य (७) अजघन्य अध्यवसानसमुदाहार (८) सादि (1) अनादि (१०) ध्रुव (११) अधव (१२) इसमे तीन अनुयोगद्वार हैं-- बंधसामित्त वि० (१३) काल (१४) अंतर (१५) सन्निकर्ष (१६) भंगविचय (१७) भागाभाग (16) परिभाग (18) (१) प्रकृति-समुदाहार (२) स्थिति-समुदाहार क्षेत्र (२०) स्पर्शन (२१) काल (२२) अंतर (२३) भाव (३) जीव-समुदाहार (२४) अल्पबहुत्व । अनुभागवंध-इस बन्धकी (क) मूल तथा (ख) उत्तरभुजगारबंध प्ररूपणामोंका सार इस प्रकार हैयहां बंधस्वामित्व समुत्कीर्तनसे लेकर अल्पबहुत्वपर्यन्त अनुभागबंध तेरह अनुयोगद्वार होते हैं । पदनिक्षेपबंध (क) मूलप्रकृति-अनुभागबंध इसमें ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं-- अनुभागबंधके प्रारंभके तादपत्र नहीं हैं।" .. (१) समुन्कीर्तन (२) स्वामित्व (३) अल्प बहुत्व । (1) स्वामित्व (२) काल (३) अंतर (४) समिकर्ष वृद्धि बंध (५) भंगविनय (६) भागाभाग (७) परिमाण (८) क्षेत्र यहां वृद्धि बंधमें समुत्कीर्तन स्वामित्वमे लेकर अल्प (E) स्पर्शन (१०) काल (११) अंतर (१२) भाव (१३) अल्पबहुत्व बहुत्वपर्यन्त तेरह अनुयोगद्वार होते हैं। यहां स्वामित्वमे तीन अनुयोगद्वार हैं--प्रत्ययानुगम, (ख) उत्तरप्रकृति-स्थितिबंध विभागदेश तथा प्रशस्त प्रशस्त प्ररूपणा। वृद्धिबंध । इम उत्तरप्रकृति-स्थितिबंध चार अनुयोगद्वार होते हैं इसी प्रकार चौबीस अनुयोगद्वार संपूण होते हैं । (१) स्थितिबंधस्थानप्ररूपणा (१) भुजगारबंध का अर्थ है कि पहले समयमें जो (२) निषेकप्ररूपणा अनुभागबंध है द्वितीयमे अधिक अनुभागबंध करना । (३) श्रावधाकांडकप्ररूपणा (२) अल्पतर बंध का यह अर्थपद है कि प्रथममे जो (४) अल्पबहुविप्ररूपणा अनुभागबधके स्पर्धक हैं दूसरे समयमै बहुतरसे अल्पतर इस अर्थपदसे अर्द्धच्छेद, सर्वबंध, नोपर्वबंध आदि बंध होना अल्पतर बंध है। अल्पबहुचपर्यन्त २४ अनुयोगद्वार होते हैं। (३) अवस्थितबंधमे जो अनुभागबध के स्पर्धक है,
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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