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________________ ४१८ अनेकान्त [वर्ष ५ ध्यान में रखकर शंकराचार्यने इस 'स्याद्वाद' का मार्मिक उल्लेख किया है। इसी तरह सिद्धसेन दिवाकर और खंडन अपने शारीरिक भाष्य (२।२।३३) में प्रबल समन्तभद्रके समयकी बात है। समन्तभद्र सिद्धसेनसे युक्तियों के सहारे किया है। यह जैनसिद्धान्त दार्शिनिक बहुत पहले होगये हैं; सिद्धसेनके न्यायावतार पर विवेचनके लिये आपाततः उपादेय तथा मनोरंजक समन्तभद्र के साहित्यकी कितनी ही छाप है, 'प्राप्तोप्रतीत होता है, पर वह मूलभूत तत्त्वके स्वरूप पज्ञमनुल्लंध्य' नामका पद्य तो उसमें ज्योंका त्यों समझानेमें नितान्त असमर्थ है। इसी कारण यह समन्तभद्र के रत्नकरण्ड' से उठाकर रक्खा हा है। व्यवहार तथा परमार्थ के बीचों बीच तत्त्वविचारको प्रो०हर्मन जैकोबी आदि अनेक विद्वानोंने यह सिद्ध कतिपय क्षणके लिये विस्रम्भ तथा विराम देने वाले करके बतलाया है कि 'सिद्धसेनका समय ईसाकी विश्राम-गृहसे बढ़कर अधिक महत्व नहीं रखता।" ७वीं शताब्दीसे पहलेका नहीं हो सकता'; जबकि ग्रन्थमें दार्शनिक विवेचनाओं के साथ ऐतिहासिक समन्तभद्रका पूज्यपाद (ईमाकी ५ वीं शताब्दी) मे व्यक्तियों और उनके समयादिकका भी उल्लेख किया पहले होना सुनिश्चित है, और वे दिग्नागसे भी गया है। ऐसे उल्लेख अनेक स्थानोंपर लिन एवं पूर्व के विद्वान सिद्ध होते हैं, जैसा कि इसी किरणमें टिपूर्ण जान पड़ते हैं और वे बहुधा खुदकी जाँच- अन्यत्र प्रकाशित न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी पड़तालके परिणाम मालूम नहीं होते-कुछ सुने- कोठियाके लेखसे प्रकट है। सुनाये, कुछ दूसरोंके पुराने उद्धरणमात्र और कितने ग्रंथकी छपाई-सफाई उत्तम है और वह विचारको ही नई खोजोंसे अछूतं जान पड़ते हैं । उदाहरणके के पढ़ने तथा संग्रह करने के योग्य है। तौरपर समन्तभद्रको सिद्धसेन दिवाकरसे दो शताब्दी -मूललेखक, कविवर पं. बनारबादका (क्रमशः५वीं ७वी शताब्दीका)विद्वान बतलाना सीदासजी । सम्पादक, श्री माताप्रसाद गुप्त एम० ए०. और विद्यानन्दका दूसरा नाम 'पात्रकेसरी' प्रकट डी० लिट् , अध्यापक, प्रयाग-विश्वविद्यालय । प्रकाकरना ऐसे ही उल्लेखोंकी कोटिमें आता है। क्योंकि शक, प्रयाग-विश्वविद्यालय हिन्दी-परिषद्, प्रयाग । 'पात्रकेसरी' विद्यानन्दका दूसरा नाम न होकर एक पृष्ठसंख्या, सब मिलाकर ७३ । मू०, एक रुपया। दूसरे ही महान प्राचार्यका नाम है जो अकलंकदेवसे प्रस्तुत पुस्तक अर्द्धकथानकके रूपमे पं० बनारसीभी पहले होगय हैं और जिनके 'विलक्षणकदर्थन' दामजीकी ५५ वर्षकी आत्मकथा है। १७ वी शताब्दी ग्रंथका स्पष्ट उल्लेख मिलता है तथा 'अन्यथानुपपन्न - के प्रतिभासम्पन्न जैनकविकी जीवन-घटनाओंका यह त्वं यत्र तत्र त्रयेण किम' इत्यादि पद्य जिनका खासतौरसे एक मांगोपांग सजीव वर्णन है, जिसमे अपने गुणपरिचायक है। इस विषयका अच्छा स्पष्टीकरण एवं दापोका यथार्थ परिचय दिया गया है। यह कविवर भूलोंका परिमार्जन आजसे कोई १३-१४ व५ पहले की एक अनूठी मुलकृति है। यदापि इस कथाका प्रायः अनेकान्त-सम्पादक पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने सभी परिचय विदवर पं० नाथूरामजी प्रेमीने अग्ने उम लखमें किया है जो प्रथम वर्षके अनेका- 'बनारसी-विलास' की प्रस्तावनामें दे दिया था और न्तकी द्वितीय किरणमें 'पात्रकेसरी और विद्यानन्द' मूलके कुछ छन्दोको भी पाठकोंकी जानकारी के लिये शीर्षकके साथ प्रकाशित हुआ है और जो उस वक्तसे उदधृत कर दिया था। परन्तु कविवरका यह ममूचा बगबर विद्वग्राह्य होता चला आया है। शान्तरक्षित ग्रंथ अभी तक अप्रकाशित ही था, जिसे अब उक्त और कमलशील जैसे बौद्धविद्वानोन भी, जो विद्या- हिन्दी परिषद्। प्रकाशित करके कमीको पूरा किया है। नन्दसे पहले हो गये हैं, तत्व-संग्रह तथा उसकी टीका पुस्तकके शुरू में ११ पेजकी भूमिका है, जिसमे में 'पात्रकेसरी' के मतका पात्रस्वामी नामादिके साथ सम्पाटकजीने कविवर बनारसीदासजीके 'उदार व्य
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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