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तत्वार्थसूत्रका मंगलाचरण
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नहीं किया गया है। चौथे, तत्वार्थाधिगमसूत्रका जो स्वोपज्ञ दशाश्रुतस्कन्ध और जीवाभिगम भादि सूत्रग्रंथोंका मंगलाभाष्य कहा जाता है उसमें उन ३१ सम्बन्धकारिकाओंका चरण बना हुआ है, उसे भी रिसीने किसीपरसे अपनाया कोई भाप्य नहीं है जो मूल के साथ सम्बद्ध हैं* और ही है। इसी तरह दिगम्बर 'प्राकृतपंचसंग्रह' के बन्धोदयजिनमें मंगलाचरण तथा ग्रन्थप्रतिज्ञाकी वे कारिकाएँ भी सवाधिकार और श्वे. 'कर्मस्सव' ग्रंथका मंगलाचरण शामिल है जिन्हे इस लेखमें पहले उद्धृत किया जा चुका भी एक है, जिससे प्रकट है कि वह किसी एकके द्वारा रचा है। ऐसा भी नहीं कि स्वोपज्ञ भाग्य अथवा टीका होनेसे गया और दूसरेके द्वारा अपनाया गया है । ऐसी हालत मंगलाचरण के पद्योंकी टीका ही न की जाती हो, क्योंकि होते हुए सर्वसिद्धि में उक्त मंगलश्लोककी टीकाका न पाया जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का जो जीतकल्प' सूत्र है उस जाना कोई विरोधी असर नहीं रखता। की स्वोपज्ञ टीकामें गणी.ने उसके मंगलाचरण की स्वयं (ग) दूसरे दो प्रन्थ (राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक ) व्याख्या की है। इसी तरह पं० प्राशाधरजीने भी अपने पार्तिक हैं और वार्तिकका लक्षण है-'सूत्रोंकी अनुपपत्ति 'धर्मामृत' की स्वोपज्ञ टीकामे मंगलपोंकी व्याख्या की को बतलाना, अनुपपत्तिका परिहार करना और सूत्रसंबंधी है। और इसलिये इस सबके निष्कर्षरूपमें यही कहना विशेष कथन करना, जैसा कि श्री विद्यानन्दके लोकवार्तिकसंगत होगा कि मूलके मंगलाचरणादि किसी भी अंशकी गत निम्न वाक्यसे प्रकट हैव्याख्या करना-न करना यह सब व्याख्याकारकी रुचि- "वार्तिकं हि सूत्राणामनुपपत्तिचोदना तत्परिहागे विशेषपर अवलम्बित है।
विशेपाभिधानं प्रमिद्धम ।" (पृ. २) (ख) पूज्यपाद प्राचार्यने अपनी सर्वार्थसिद्धिर्म तत्वा
ऐसी हालतमें वार्तिकोंके लिये उनके स्वरूपसे ही यह र्थसूत्रके मंगलाचरणको अपना लिया है, इससे भी उनपर
आवश्यक नहीं रहता कि वे सत्रों के अतिरिक्त मंगलाचरण उक्त मंगललाव की व्याख्या करना कोई आवश्यक नहीं
की भी व्याख्या करें । और जब बार्तिकोंके लिये ही वह रहा। दूसरे श्राचार्योंने उमास्वातिकृत 'मोक्षमार्गस्य नेतारं'
आवश्यक नहीं तब उनके भाष्योंके लिये तो कैसे प्रावश्यक इत्यादि मंगलश्लोकको तथा इसमे प्रयुक्त हुए प्राप्तके विशे
हो सकता है ? क्योंकि ये वार्तिकानुपारी ही होते हैं। अत: पणोंको अपनाकर प्राप्तस्वरूपका प्रतिपादन किया है, इसी राजवार्तिक जैसे ग्रंथों में यदि मंगलाचरण की व्याख्या न बातको बतलानेके लिये विद्यानन्द प्राचार्यने अपनी प्राप्त- मिले तो वह कोई अनहोनी बात नहीं है। इसके सिवाय परीक्षा-टीका और अमहस्रीमें 'सूत्रकागदयः प्राहुः' राजवार्तिककार प्रकलंकदेवने, उक्त मंगलश्लोकको लक्ष्य 'तत्वार्थसूत्रकारादिभिः उमास्वातिप्रभृतिभिःप्रतिपाद्यते' करके लिखी गई प्राप्तमीमांसा ( देवागम ) की वृत्तिम • मुनिभिः सूत्रकारादिभिरभिटूयते' जैसे वाक्योंमें 'मङ्गलपुरस्सरस्तव' जैसे शब्दोंके द्वारा यह सूचित किया 'आदि' और 'प्रभृति' शब्दोंका प्रयोग किया है, जैमा कि है कि उक्त मंगलस्तोत्र तत्वार्थशास्त्रके अवतारके समय ऊपर बतलाया जा चुका है। दूसरेके मंगलाचरणको अपनाने रचा गया है। और विद्यानन्दने तो श्लोकवार्तिकमे उक्त की बात भी कोई अनोखी तथा नई नहीं है-महाकम्म- मंगलश्लोक-गत प्राप्तके विशेषको लेकर प्राप्तके स्वरूपका पयडी पाहुडके 'गणमो जिगणाणं' आदि ४४ मंगलसूत्रोंको बहुत कुछ व्याख्यान भी किया है, प्राप्तके उक्त विशेषणोंकी वेदनावण्ड' में अपनाया गया है और 'णमोअरिहंताणं' सिद्धिपर ही श्रादिमस्त्रका प्रवर्तन बन सकता है यह बतलाया है, श्रादिरूपसे जो णमोकारमंत्र षटबंडागम, भगवतीसूत्र, जिसका कुछ उल्लेख इसी लेखमें पीछे विद्यानन्दका अभिमत' * जैसा कि नत्वार्थसूत्रकी उम सटिप्पण-प्रतिसे भी प्रकट है * जमा कि श्रष्टमहस्रीमं दी हुई उक्त शब्दोकी निम्न व्याग्व्या जिसका परिचय पं जुगल किशोरने अनेकान्त के नीमरे वर्षकी परसे भी प्रकट हैप्रथम किरणम पृ० १२१ से १२८ तक दिया है । पं. "मंगलपुरस्सरस्तवो हि शास्त्रावताररचितस्तुनिरुच्यते । मुग्बलाल जी भी अपने तत्वार्थसूत्रकी प्रस्तावनामें, इन्हें मंगलं पुरम्मरमस्येति मंगलपुरस्सर: शास्त्रावतारकालस्तत्र "मूलग्रंथको ही लक्ष्य करके लिखी गई" बतलाते हैं। नितः स्तवो मंगलपरस्मरस्तवः इति व्याख्यानात् ।""