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________________ २३६ अनेकान्त [ वर्ष ५ उपसंहार और आभार प्रयोग क्रमश: 'राजवासिंक' और 'अवलङ्क देवे के लिए न ऊपर के इस संपूर्ण विवेचनपरसे नीचे लिखी बातें होकर 'तत्वार्थ सूत्र' और उसके वर्ता 'उमास्वाति' के लिये बकुल स्पष्ट और सन्देह-रहित हो जाती है किया गया है। और इस लिये शास्त्रीजीका यह लिखना कि 'विद्यानन्द अपने पूर्ववर्ती किसी भी श्राचार्यको 'सूत्रकार' ओर पूर्ववर्ती किसी भी प्राथको 'सूत्र' लिखते हैं' बिल्कुल निराधार है, और यह निराधारता उन प्रचुर प्रमाणोंसे और भी दिनकर - प्रकाशकी तरह स्पष्ट हो जाती है जो ऊपर पृ० २२१ पर उटत किए गए हैं 1 ४- उक्त मङ्गलश्लोके उमास्वाति-कृत न होनेमे ओ पोच कारण शास्त्रीजीने उपस्थित किए हैं उनमें कुछ भी दम तथा सार नहीं है-सूत्रादिमंगलाचरणकी पृथाका पता उमास्वातिके पूर्ववर्ति समय में गोतमस्वामी तक चलता है, किसी भी टीकाकार के लिए यह प्रावश्यक तथा लाज़िमी नहीं कि वह उसके मंगलाचरणकी भी व्याख्या करे, श्लोकवार्तिकमे व्याख्याका न होना बतलाना गलत है, सर्वार्थसिद्विकार पूज्यपाद मूलके उक्त मंगलश्लोकको अपना लिया है इससे उनपर उसकी व्याख्याका करना और भी श्रावश्यक नही रहा, सर्वार्थसिद्धिपर प्रभाचन्द्रका वह क्रम तथा श्रव्यवस्थित विवरण कोई विरोधी प्रसर नहीं रखता और श्वेताम्बर श्राचार्योंके लिये तो अपनी टीका इस मंगलश्लोककी व्याख्या श्रादिका कोई कारण ही नहीं रहता जब उनके यहाँ पहलेसे सूत्रपाठ अलग स्थिर कर लिया गया है और उसमें उक्त मंगलश्लोकको स्थान नहीं दिया गया है, बल्कि शुरूको सम्बन्धकारिकाओंमें दूसरे ही मंगलाचरणकी कल्पना की गई है। 1 आशा है शास्त्री हमपरसे पुन: विचार करके अपने निर्णयको बदलेंगे और दूसरे विद्वान् पाठक भी इस विषय को निर्णीत करार देंगे कि 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' इत्यादि मंगलश्लोक नश्वार्थसूत्रका मंगलाचरण है श्री सूत्रकार उमास्वाति की कृति है । विद्वानोंसे अपना अपनाथभिमत प्रकट करनेके लिए सानुरोध निवेदन है । १ --- श्राचार्य विद्यानन्दने श्राप्तपरीक्षा के अन्तिम पद्यों और प्रष्टसहस्त्र | गलपद्य में ऐसी कोई सूचना नहीं की कि 'तस्वार्थसूत्रकी उत्पत्तिका निमित्त बतलाने वाली भूमि कादि बाँधते समय चाचार्य पूज्यपादने अपनी स टीका के प्रारम्भमें स्वयं उक्त मंगलश्लोकको बनाकर रक्खा है' और न उन शब्दोंपरसे ही ऐसी कोई सूचना मिलती है जिनकी तरफ शाखोगीने संकेत किया है। उनक स्पष्ट आशय इतना ही है कि तस्वार्थशास्त्र (सूत्र) की श्रादि मैं उसके रचनारम्भके समय शाखकार ने सूत्रकार उमास्वातिने 'मोषमार्गस्य नेता' इत्यादिरूपसे उस मंगलस्त्रोत्रकी रचना की है जिसकी आसपा ऽन्वरूप' व्याख्या की गई है 1 , २ श्रीविद्यानन्द आचार्यके लोकवार्तिक मध्याख्यान परीक्षा सटीक और सही जैसे ग्रन्थोंपर उनका यह स्पष्ट अभिमत पाया जाता है कि उक्त मंगलस्तोत्र एक मात्र सूत्रकार उमास्यानिकी कृति है और उन्होंने उसे अपने स्वार्थ आदि में मंगलाचरयाली पर रखकर रखा है। ३- प्राचार्य विद्यानन्दकी दृष्टिमें 'सूत्रकार' का वाच्य प्राचार्य उमास्वाति और 'सूत्र' शब्दकावाच्य उनकी एकमात्र कृति तस्यार्थसूत्र रहा है। शास्त्रीजीने भी उदाहरण उपस्थित किया है, वह बिल्कुल गलत तथा भ्रममूलक है । उसमें पाये जाने वाले 'सूत्र' और 'सूत्रकार' शब्दोंका है । स्वयं विद्यानन्द के वाक्योंमे ही वह स्पष्टतया सूत्रकार उमास्वाति-कृत सिद्ध होता है । ऐसी हालत में उक्त सुझाव निर्धक है । ममन्तभद्र के समय सम्बन्धमे पं० जुगलकिशोर मुख्तारका लिखा हुआ 'समन्तभद्रका समय और डाक्टर के०बी० पाठक' नामका वह लेख देखना चाहिए, जो 'जैन जगत' के ६ वर्षके श्रङ्क १५-१६ में प्रकाशित हुआ है। उसमे दी हुई सभी युक्तियांका जब तक कोई सबल उत्तर नही दिया जाता तब तक यो ही चलती सी बात कह देना ठीक नहीं है और इसमे यहाँ उसके विषय में विशेष कुछ भी लिखना उचित नही समझा गया-वद इस लेख का विषय नहीं है । 1 इस लेख लिखने में मुझे मुख्तार श्री पं० जुगल किशोर जीका पूरा सहयोग प्राप्त हुआ है, जिसके लिये मैं आपका बहुत आभारी हूँ । आपका भी इस विषय में यही मत तथा निर्णय है। वीर मेवा मन्दिर, सरसावा जि० सहारनपुर
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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