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अनकान्त
[वर्ष ५
दूसरे प्रकारमे निबद्ध मंगलके रूपमे है। इससे कृत्वा त्रिकरणशुद्धं तस्मै परमर्षये नमस्कारम। सत्रग्रंथोकी प्रादिमे मंगलाचरण की पद्धति पूज्यतमाय भगवते वीराय विलीनमोहाय ॥१॥ गौतम स्वामी तक पहुंच जाती है, जहांसे भागम- उपर्युक्त प्रमाणोपरसे प्रकट है कि प्राचीन सूत्रग्रंथोंमे सूत्रोका प्रारंभ होता है।
ती मंगलाचरण की पद्धति रही है, शुभ कार्यकी प्रादिमें २ प्रवचनसार, पंचास्तिकाय आदि-ये श्री मंगलाचरण करना शिष्ट एवं आस्तिक परम्पराके अनुकूल कुंदकुदाचार्य के सूत्रग्रंथ हैं, जिनमे 'एस मुग- है--प्रतिकृल नहीं, और इसलिये कुछ ग्रन्थोंमें यदि मंगसुरमहिदो', 'इंदमदवंदियाण' इत्यादि रूप लाचरण नही भी पाया जाता तो मात्र उस परसे यह से मंगलाचरण किया गया है । कुंदकुंदाचार्य कल्पना कर लेना कि, उमास्वातिने भी मंगलाचरण न किया उमास्वातिमे पूर्ववर्ती हैं । "प्रो. ए. एन. होगा, ठीक नहीं है। वह उमास्वाति-ग मंगलाचरण के उपाध्येने प्रवचनमारकी भूमिकामें इनका किये जाने अथवा उसके श्रीचित्यमें कोई बाधक नहीं हो समय ईसाकी प्रथम शताब्दी सिद्ध किया है। सकता । प्रकटरूपसे मंगलाचरण का करना-नकरना ऐसा शास्त्रीजीने स्वयं न्यायकुमुदचंद्रकी। अथवा मंगलाचरण करके उसे शास्त्रनिबद्ध करना-न करना प्रस्तावना (पृ. २५) मे विना किमी अापत्तिके यह सब हर किसीकी अपनी रुचिपर निर्भर है । और इस उल्लेवित किया है।
लिये शास्त्रीजीके पहले कारण में कुछ भी मार मालूम नहीं (ब ) श्वेताम्बरीय सूत्रग्रंथ
होता। १ भगवतीमूत्र-इसमे णमो अरिहंताणं इन्यादि (२) दूसरे कारण के सम्बन्धमे मेरा निवेदन इस रूपमे कई मंगलसूत्र दिये हैं।
प्रकार है :-- २ दशाश्रुतस्कन्धसूत्र-इसमें भी णमो अरिहं. (क) प्रथम तो यह मंगलश्लोक बहुत सुगम है-- ताण' इत्यादि नमोकारमंत्रको ही मंगलाचरण शब्दार्थकी दृष्टिमे इसकी व्याख्याकी ऐसी कोई जरूरत नही के रूपमे दिया है।
रहती। दूसरे, हर प्रकारके टीकाकारके लिये यह लाजिमी ३ नन्दीमत्र--इसमें 'जयह जगजीवजोणों श्रादि नहीं कि वह ग्रंथके मंगलाचरण की भी व्याख्या करे--
तीन गाथाओ द्वारा मंगलाचरण किया है। कितने ही टीकाकार तो मूलके भी अनेक पद-वाक्योंकी ४ निशीथसूत्र-इसमे 'नमो मुयनेवयाए रूपये टीका करना आवश्यक नहीं समझते, और इसलिये उन्हें मंगलका विधान है।
यो ही अथवा 'सुगम अादि लिवकर छोड़ते हुए देख ५ नशवकालिक सूत्र-इसमें 'धम्मो मंगलमुक्टि" । जाते हैं। 'धवला जैसी विस्तृत टीका तकम भी एमे बहुत
इण्यादि रूपसे मंगलाचरण किया है। स्थल पाये जाते हैं। तीसरे, ऐसे स्पष्ट उदाहरण भी उप६ जीतकल्पसूत्र(जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण कृत)-- लब्ध हैं, जिनमें मूलग्रन्थपर टीका अथवा भाष्य लिम्बते इसमे 'कयपवयण पणामो' इस रूपमे समय मूलके मगलाचरण की कोई व्याख्या नही की गई। मंगलाचरण है।
नमृनेके तौरपर श्वेताम्बर सम्प्रदायके कर्मस्तव' नामके ७ तत्वार्थमूत्र-इसके शुरू में मूलसे सम्बन्धित द्वितीय कर्मग्रंथ और ' पडशीति' नामके चतुर्थ र्मग्रंथ
जो ३१ कारिकाएँ स्वयं उमास्वानिकृत मानी को पेश किया जा सकता है. जिन दोनोमे मंगलाचरण जाती है उनमे नमस्कारात्मक मंगलाचरणकी किया गया है परन्तु उनके भाष्योम मूल के मंगलाचरण पर एक कारिका निम्न प्रकार है, जिसके अनन्तर ही कुछ भी नहीं लिखा गया--मंगलाचरण का व्याख्यान या दूसरी कारिका' ग्रन्थ रचने की प्रतिज्ञाको लिए भाग्य करना तो दूर रहा, उपके पदोका निर्देश तक भी
तत्वार्थाधिगमाख्यं बहथं संग्रा लघु ग्रन्थम् । * वह दूसरी कारिवा इस प्रकार है:
वक्ष्यामि शिप्यहित-निमम द्वचनैकदेशम्य ॥२२॥