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________________ किरण ६-७ तत्वार्थसूत्रका मंगलाचरण २३१ माननेमें संकोच हो रहा है। अत: उन कारणों को भी जाँच कि यह श्लोक सूत्रकार का है, तो वे इस अमूल्य कर लेना आवश्यक जान पड़ता है, जिससे यह विषय और बेजोड़ श्लोकरनको कभी भी नहीं छोड़ते। वे इसपर भी अधिक स्पष्ट हो जाय और उक्तमंगलश्लोकको तत्त्वार्थ व्याख्या करते और स्वतन्त्र प्रन्य तक रचते । सूत्रका मंगलाचरण मानने में किसीको भी संकोच न रहे। इत्यादि कारणोसे यह निःसंकोच कह सकते हैं कि शास्त्री जी अपने उन कारणोंको उपस्थित करते हुए यह श्लोक स्वयं सूत्रकार-कृत नहीं है, किन्नु पूज्यपादकृत है।" लिखते हैं: (१) इन कारणों में से प्रथम कारणके सम्बन्धमें पहले "निम्न लिखित कारणोंसे यह स्तोत्र स्वयं मूत्रकार तो मैं यह कह देना चाहता हूं कि यह कोई ऐसा हेतु नहीं उमास्वातिका तो नही मालूम होता जो विषयका निर्णायक हो सके, क्योंकि शास्त्रीजीके देखने में १-जहाँ तक प्राचीन प्रास्तिक सूत्र-ग्रन्थ देखने में पाए हैं, यदि कोई ऐसे प्राचीन ग्रन्थ न भी पाए हों जिनमें मंगलाउनमें कही भी मंगलाचरण करनेकी पद्धति नही है। चरण किया गया हो तो इसपरसे यह नहीं कहा जा सकता कि उमास्वातिकाल तक सूत्रग्रन्थों में मंगलाचरणकी पद्धति २-यदि यह सूत्रकार-कृत होता, और तन्वार्थसूत्रका ही नही थी। दूसरे, यह बतला देना चाहता हूं कि एसे अनेक अंग होता, तो उसकी व्याख्या करने वाले पूज्यपाद प्राचीन सूत्रग्रन्थ दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही जैन अकलङ्क और विद्यानन्द श्रादि प्राचार्योने अपने सवार्थ परम्परामोमें पाये जाते हैं जिनमें मंगलाचरण किया गय। सिद्धि, राजवार्तिक और श्लोकवार्तिक श्रादि व्याख्या है। नीचे उनमें से कुछ के नाम मंगलाचरणकी सूचना ग्रन्थों में इसका व्याख्यान अथवा निर्देश अवश्य किया सहित प्रकट किये जाते है :-- होता। (क) दिगम्बर जैन सूत्रग्रन्थ३--यदि पूज्यपादने स्वयं इसे नहीं बनाया होता श्रीरवं इसे सूत्रकारकृत समझते तो वे सर्वार्थसिद्धिमे इसका १ पटवण्डागमसूत्र--यह पुष्पदन्त-भूनबली व्याख्यान अवश्य करते ।। श्राचार्यविरचित अतिप्राचीन सूत्रग्रंथ है। इस के प्रथम खगड 'जीवाण' की प्रादिमें 'गामी ४--सर्वार्थसिद्धिपर प्रभाचन्द्रकृत तत्वार्थवृत्तिपद-विवरण अरिहंताणं णमो सिद्धार्ग' इत्यादि प्रसिद्ध नामकाका एक विवरण उपलब्ध है । इसमें इस यामोकारमंत्र मंगलाचरण के रूपमें दिया है. मंगलको सर्वार्थसिद्धिका मानकर उसका यथावत और 'वेयणा' खण्डकी प्रादिमें 'रामाजिग्गाणं' व्याख्यान किया है। इत्यादि ४४ मंगलसूत्र दिये हैं, जिनकी बाबत ५-तत्त्वार्थसूत्र थोडे-बहुत हेर-फेरके साथ श्वेताम्बर 'धवला' टीकामे लिखा है कि 'ये गोतमस्वामिपरम्परामे भी मान्य है। उसपर एक स्वयं सूत्रकारका प्रणीत 'महाकर्मपयडीपाहुड' के श्रादिके स्वोपज्ञ भाष्य भी प्रसिद्ध है। सिद्धसेनगणि, हरिभद्र, मंगलसूत्र हैं, वहीये लाकर भूतबलि प्राचार्यने यशोविजय उपाध्याय आदि प्राचार्योने इसपर टीकाएं इन्हें उम कम्मपयडी पाहुडके उपसंहाररूप इस लिखी हैं। इन सभी व्याख्यानोंमे इस मंगलस्तोत्रका वेदनाखंडकी आदिमें मंगलके लिये रक्खा है. उल्लेख तक नहीं है। यदि यह स्वयं उमास्वातिकृत और इसलिये ये एक प्रकारसे अनिबद्ध तथा होता, तो कोई कारण नहीं था कि इन श्वेताम्बर *यह उद्धरण शास्त्र के लेग्वक उम आदिम ग्रंशक बाद व्याख्याओं में न पाया जाता । इस श्लोकमें कोई का है जो इम लेविके शुरुम उदधृत किया गया है और भी ऐसी माम्प्रदायिक वस्तु नहीं है, जिससे हमके अननसरका वह अंश है मे ऊपर मध्यभाग बाला साम्प्रदायिकताके कारण इसके छोडनेका प्रसंग अश प्रकट किया है और जो "परन्तु विद्यानन्द प्राचार्य पाता। यदि इन प्राचीन प्राचार्योको यह ज्ञात होता ही" इन शब्दाम प्रारम्भ होता है।
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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