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अनेकान्त
१ - विस्तारतो देवागमे तस्य समन्तभद्रस्वामिभिः प्रतिपादनात् । पृ० ८६
२- प्रश्नवशादेकवस्तुन्य विरोधेन विधि- प्रतिषेधकल्पना सप्तभंगीति वार्तिककारवचनात् । पु० १०७ सत्यशासनपरीक्षा के अवतरण -- यह ग्रन्थ यद्यपि इस समय मेरे सामने नहीं है और न वीरसेवामन्दिरमें ही मौजूद है, फिर भी इस ग्रन्थ के परिचयका जो लेख स्वयं शास्त्रीजीने अनेकान्त वर्ष ३ किरण ११ मे प्रकाशित कराया है और उससे भी पूर्व जैनहितैषी भाग १४ के श्रह्न नं० १०-११ मे मुख्तार श्री जुगल किशोरजी ने जो परिचायक नोट निकाला है उन दोनोंपर से यह स्पष्ट जाना जाता है कि इस ग्रन्थमें ‘उक्त ं च भट्टाकलङ्कदेवैः' 'उक्त च स्वामि समन्तभद्राचार्यैः' जैसे वाक्योंके साथ अकलङ्क और समन्तभद्र के वाक्य उद्घृत पाये जाते हैं। शास्त्री जीने सिद्धिविनिश्चयके 'यथा यत्राविसंवादः तथा तत्र प्रमाणता' इस कारिकांशको उद्धृत करके बतलाया है कि इसे "कलदेवका नाम निर्देश करके ही उद्घृत किया है।"
सात ग्रन्थोंके इन बहुतसे श्रवतरणोंपर से स्पष्ट है कि विद्यानन्दने तत्त्वार्थ सूत्र के कर्ता श्राचार्य उमाम्वातिमे भिन्न अपने पूर्ववर्ती दूसरे किसी भी श्राचार्यको इन श्रवतर णोंमें सूत्रकार नही लिखा है और न उनके किसी ग्रन्थको 'सूत्र' नामसे या सूत्रनामके साथ उल्लेखित किया है, और इस लिए शास्त्र जीने विद्यानन्दकी लेखन शैली के सम्बन्ध मे जो नई कल्पनाकी है वह बड़ी ही अनोखी तथा निगधार जान पड़ती है और कहीं भी उसका समर्थन नही होता। स्वयं चुनकर रक्खा हुश्रा शास्त्रीजीका उदाहरण ही जब उसका समर्थन करने में असमर्थ हो गया है तब दूसरे किन श्राधारोवरसे वह फलित होती है श्रथवा उसका समर्थन होता है. इसे शास्त्रीजी ही बतला सकते हैं
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[ वर्ष ५
यह पाठ शुद्ध है, इसकी जगह 'तत्त्वार्थसूत्रकारादिभिः ' होना चाहिये; जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है-श्रौर एक फुटनोट-द्वारा उसका अच्छा स्पष्टीकरण भी किया जाचुका है। ऐसी हालत में 'तत्त्वार्थ सूत्रकार' शब्दका एक मात्र वाच्य यहाँ श्राचार्य उमास्वाति हैं - तस्वार्थ सूत्रकार उमास्वाति से भिन्न दूसरे श्राचार्य 'आदि' तथा 'प्रभृति' शब्दों वाच्य हैं। और इस लिए विद्यानन्द ने उमास्वातिके बाद प्रभृति' शब्द के प्रयोगद्वारा श्रन्य पूज्यपादादि श्राचार्यों को 'तत्वार्थ पूत्रकार' सूचित नही किया है । यदि थोड़ी देरके लिये यह मान भी लिया जाय कि दूसरे श्राचार्योंको भी सूत्रकार सूचित किया है तो भी उससे यह फलित नहीं होता कि उन्हें भी 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' इत्यादि मंगलश्लोकका कर्ता बतलाया है; क्योंकि एक ही कृतिके भिन्नकालवर्ती दो कर्ता हो नहीं सकते — दूसरे तो उसके अनुमती ही कहे जा सकते हैं तब उक्त मंगलश्लोक-गत विषय के प्रतिपादन में उमास्वातिका नाम खास तौर से देने और दूसरे किसी भी प्राचार्यका नामोल्लेख साथ मे न करनेसे यह साफ़ जाना जाता है कि विद्यानन्दने उमास्वाति श्राचार्यको ही उक्त मंगलश्लोकका कर्ता सचित किया है, दूसरे पूज्यपादादि श्राचार्य, जिन्होंने इस मगलश्लोकको अथवा इसमें प्रयुक्त हुए प्राप्तके विशेषणांको अपनाया है, वे सब इसके अनुसर्ता ही हैं—कर्ता नही । और जब यह सिद्ध होजाता है कि उमास्वाति आचार्य 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' इत्यादि मंगलश्लोक के कर्ता हैं और उन्होंने इसे अपने तत्त्वार्थशास्त्रकी श्रादिमें रखखा है, तब इसमें कोई सन्देह नही रहता कि यही श्लोक प्रस्तुत तस्वार्थमूत्रका मंगलाचरण है।
रही श्राप्तपरीक्षा टीकाके 'तत्त्वार्थसूत्रकारैः उमाम्वामिप्रभृतिभि:' इस उल्लेखमे प्रयुक्त हुए 'प्रभृति' शब्दके द्वारा अन्य पूज्यपाद श्रादि श्राचार्योंको सूत्रकार सूचित करने की बात, वह नहीं बनती; क्योंकि इसमें 'तत्त्वार्थसूत्रकारः'
उमास्वातिकृत न होनेके कारण और उनकी जाँच
उक्त वस्तुस्थितिपरसे, यद्यपि, 'मोक्षमार्गस्य नेतार' इत्यादि मङ्गलस्तोत्रको उमास्वातिका कहने से इनकार करने के लिये कोई कारण नहीं रहता, फिर भी शास्त्रीजी ऐसे कुछ दूसरे कारण भी उपस्थित कररहे हैं जिनकी वजह से उन्हें उक्त मंगलस्तोत्रको सूत्रकार उमास्त्रातिका