________________
किरण ५]
वीर शासन और उसका महत्व
१८६
हे जिन ! आपने शुद्धिके-ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्म उनका अभाय नहीं होता । किन्तु एवान्तवादियोंका आगमके क्षयसे उत्पन्न प्रात्मीय ज्ञान-दर्शनके–तथा शक्तिके- वाक्य अथवा शासन परस्पर निरपेक्ष होनेसे सब धर्मों वीर्यान्तराय कर्मके क्षयमे उत्पन्न प्रान्मबलके-परम प्रकर्ष वाला नहीं है उनके यहां धर्मोमे परस्परमें अपेक्षा न को प्राप्त किया है-श्राप अनन्नदर्शन, अनन्तज्ञान और होनेसे दूसरे धर्मोंका अभाव होजाता है और उनके श्रभाव अनन्तवीयके धनी हुए हैं--पाथ ही अनुपम एवं हो जाने पर उस अविनाभावी अभिप्रेतधर्मका भी अभाव अपरिमेय शान्तिरूपताको--अनन्तसुखको-भी प्राप्त कर हो जाता है। इस तरह एकान्तमे न वाच्यतत्व ही बनता है लिया है, इसीये श्राप 'ब्रह्मपथ' के--मोक्षमार्गके--नेता हैं और न वाचकतत्व ही। और इसलिये हे वीर जिनेन्द्र !
और इसीलिए आप महान् हैं--पूज्य हैं। ऐसा हम परस्परकी अपेक्षा रखने के कारण-अनेकान्तमय होनेके कहने-सिद्ध करने के लिए समर्थ हैं।'
कारण-श्रापका ही तीर्थ-शासन सम्पूर्ण श्रापदानोंका अंत __समन्तभद्र वीरशासनको अद्वितीय बतलाते हुए करने वाला है और स्वय निरंत है-अंतरहित अविनाशी लिखते हैं:
है तथा सर्वोदयरूप है--समस्त अभ्युदयों - अात्मिक दया-दम-त्याग-समाधि-निष्टं
और भारतक विभूतियोंका कारण है। तथा सर्व प्राणियों के नयप्रमाणप्रकृताञ्जमार्थम ।
अभ्युदय-अभ्युग्थानका हेतु है। समन्तभद्रके इन वाक्योंमे अधृष्यमन्यैरविलेः प्रवादे
यह भले प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि वस्तुनः 'वीर जिन त्वदीयं मतमद्वितीयम ॥ (युक्तचनुशासन) शासन' ही सर्वोदय तीर्थ कहलाने के योग्य है। उसमे वे
हे वीर जिन ' आपका मत-शासन नय और प्रमाणोके विशेषताय एवं महत्ताये हैं जो अाज विश्वके लिये द्वारा वस्तुतत्त्वको बिल्कुल स्पष्ट करने वाला है और अन्य वीरशासनकी देन कही जाती हैं या कही जा सकती हैं। समस्त एकान्तवादियोंसे वाध्य है - अखडनीय है, साथ वे विशेषताये कुछ निम्न प्रकार हैंमें दया अहिंसा, दम-इन्द्रियनिग्रहरूपसंयम, त्याग-दान १ अहिंसावाद, २ साम्यवाद, ३ स्याद्वाद और अथवा समस्त परिग्रहका परित्याग और समाधि-प्रशस्त ४ कर्मवाद । इनके अलावा वीरशासनमे और भी वाद हैंध्यान इन चारोंकी तत्परताको लिये हुये है, इसलिए वह श्रा'मवाद, ज्ञानवाद, चारित्रबाट, दर्शनवाद, प्रमाणवाद, 'अद्वितीय है।
नयवाद, परिग्रहपरिमाणवाद, प्रमेयवाद आदि, किन्तु दयाके बिना दम-संयम नहीं बन सकता और संयमके
उन सबका उल्लिखित चार वादों में ही प्रायः अन्तर्भाव होजाता बिना ग्याग नही और त्यागके बिना समाधि-प्रशस्त ध्यान
है। प्रमाणवाद और नयवाद ये ज्ञानवादके ही नामान्तर हैं नहीं हो सकता, इमीसे वीरशासनमें दया-हिमाको प्रधान
और इनका तथा प्रमेयवादका स्याद्वादके साथ सम्बन्ध स्थान प्राप्त है। 'चीर-शासन' की इस महत्ताको बतलानेके बाद
होनेये स्याद्वादमें, और बाकीका अहिंसावाद तथा साम्यवादमे समन्तभद्ग उसे 'सर्वोदयतीर्थ' भी बतलाते हुए लिखते हैं
अन्तर्भाव हो जाता है। सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं
-अहिसावाद-'स्वयं जियो और जीने दो' की सर्वान्तशन्यं च मिथोऽनपेक्षम्।।
शिक्षा भगवान महावीरने इस अहिंसावाद द्वारा दी थी। सर्वापदामन्तकरं निरन्तम
जो परम अामा, परमब्रह्म, परममुस्त्री होना चाहता है उसे सर्वादयं तीथमिदं तवैव ॥ आइसाका उपासना करना चाहिय-उप अपन समान हा -युक्त यनुशासन
सबको देखना चाहिये-अपना अहिंसक श्राचरण बनाना है वीर ! श्रापका तीर्थ-शासन अथवा परमागम- चाहिये । मनुष्यमें जब तक हिंसक वृत्ति रहती है तब तक द्वादशागत-समस्त धर्मों वाला है और मुख्य, गौणकी आत्मगुणोंका विकास नहीं हो पाता-वह दुःखी, अशान्त अपेक्षा करके समस्तधर्मोकी व्यवस्थासे युक्त है-- एक धर्मके बना रहता है। अहिंसकका जीवमात्र मित्र बन जाता हैप्रधान होने पर अन्य बाकी धर्म गौण मात्र हो जाते हैं- सर्व वैरका त्याग करके जातिविरोधी जीव भी उसके उपा