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वीर-शासन और उसका महत्त्व
[ले०-५० दरबारीलाल जैन, न्यायाचार्य ]
अन्तिम तीर्थकर भगवान् वीरने अाजमे २४६८ वर्ष प्रधानी प्रसिद्ध जैन आचार्य थे और जो आजसे लगभग
पूर्व बिहार प्रान्तके विपुलाचल पर्वतपर स्थित होकर १६०० वर्ष पूर्व हो चुके हैं, भगवान् महावीर और उनके श्रावण कृष्णा प्रतिपदाकी पुण्यवेलामें, जब सूर्यका उदय शासनकी खूब परीक्षा एवं जांच की है-'युक्तिमवचन' प्राचीसे हो रहा था, संसारके संतप्त प्राणियोंके संतापको दूर अथवा 'युक्तिशास्त्राविरोधिवचन' और 'निर्दोषता' की कसौटी कर उन्हें परमशान्ति प्रदान करने वाला धर्मोपदेश दिया पर उन्हें और उनके शासनको खूब कसा है। जब उनकी था। उनके धर्मोपदेशका यह प्रथम दिन था। इसके बाद परीक्षामे भगवान् महावर और उनका शासन सौटंची भी लगातार उन्होंने तीस वर्ष तक अनेक देश-देशान्तरोंमे स्वर्णकी तरह ठीक साबित हये तभी उन्हें अपनाया है, विहार करके पथभ्रष्टोको सत्पथका प्रदर्शन कगया था, उन्हें इतना ही नहीं किन्तु भगवान वीर और उनके शासनकी सन्मार्ग पर लगाया था। उस समय जो महान् प्रज्ञान- परीक्षा करनेके लिये अन्य परीक्षकों तथा विचारकोंको तम मर्वत्र फैला हुआ था, उसे अपने अमृत-मय उपदेशों धामन्त्रित किया है-निप्पक्ष विचारके लिये खुला चैलेज द्वारा दूर किया था, लोगोंकी भूलोको अपनी दिव्य वाणीने दिया है। समन्तभद् स्वामीके ऐसे कुछ परीक्षा-वाक्य थोडे बताकर उन्हें तत्त्वपथ ग्रहण कराया था, सम्यकदृष्टि बनाया से ऊहापोह के साथ नीचे सानुवाद दिये जाते हैं:था। उनके उपदेश हमेशा दया एवं अहिंसासे श्रोत-प्रोत दवागमनभोयानचामरादिविभूतयः। हुआ करते थे। यही कारण था कि उस समयकी हिंसामय मायाविपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान ॥२॥ स्थिति अहिंसा परिणत होगई थी और यही वजह थी
-आप्तमीमांसा कि इन्द्रभूति जैसे कट्टर वैदिक ब्राह्मण विद्वान् भी, जिन्हें
'हे वीर देवोंका पाना, आकाशमे चलना, चमर, बादको भगवान् वीरके उपदेशोंके संकलनकर्ता-मुग्थ्य गण- छत्र, सिंहासन प्रादि विभूतियोंका होना तो मायावियोंधर तकके पदका गौरव प्राप्त हुआ है, उनके उपाश्रयमे इन्द्रजालियों में भी देखा जाता है, इस वजहसे श्राप हमारे
आये और अन्तमे उन्होंने मुक्तिको प्राप्त किया । इस महान्-पूज्य नहीं हो सकते। और न इन बातोंमे आपकी तरह भगवान् वीरने अपने अवशिष्ट तीस वर्षके जीवन में संख्या- कोई महत्ता या बडाई है। तीत प्राणियोंका उद्धार किया है और जगतको परम हित- समन्तभद्र स्वामीने ऐसे अनेक परीक्षा-वाक्यों द्वारा कारक सच्चे धर्मका उपदेश दिया है। वीरका यह सब दिव्य उनकी और उनके शासनकी परीक्षा की है, जिनका कथन उपदेश ही 'वीरशासन' या 'वीरनीर्थ' है और इस तीर्थको सूत्ररूपये श्राप्त-मीमांसा दिया हुआ है। परीक्षा करनेके चलाने-प्रवृत्त करनेके कारण ही वे 'तीर्थकर' कहे जाते हैं। बाद उन्हें उनमे महत्तायी जो बात मिली है और जिसके वर्तमानमे उन्हींका शासन तीर्थ चल रहा है, परन्तु वीर-शासन कारण भगवान् वीरको 'महान्' तथा उनके शासनको क्या है ? उसके महत्त्वपूर्ण सिद्वान्त कौनसे हैं ? और उस 'अद्वितीय' माना है, वे ये है:में क्या-क्या उल्लेखनीय विशेषतायें हैं ? इन बातोंसे बहत त्वं शुद्धि शक्तयोरुदयस्य काष्ठां, कम सज्जन अवगत हैं । अस्तु, यहां इन्ही बातोंपर संक्षेपमें तुलाव्यतीतां जिन शान्तिरूपां। कुछ विचार किया जाता है। आशा है पाठकोंको यह रचि- अवापिथ ब्रह्मपथस्य नेता कर और कुछ लाभप्रद ज़रूर होगा।
महानितीयत्प्रतियक्त मीशाः॥ (युक्त यनुशामन) समन्तभद्र स्वामीने, जो महान् तार्किक एवं परीक्षा- * देखो युक्तयनुशासन का०६३