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________________ किरण ५ ] राष्ट्रकूट-नरेश अमोघवर्षकी जैनदीक्षा में उनके मुनि होने का उल्लेख नहीं आ सका। द्वारा या और किसीके द्वारा जोड़ी गई होंगी।" गणितमहावीराचार्य ने अपना गणितसारसंग्रह अमोघवर्षके सारसंग्रहमें उसके कर्ता-द्वारा ग्रन्थका रचनाकाल नहीं दीक्षा ग्रहण कर लेनेके और उनके जीवनक.लके भीतर दिया गया, इससे यह निश्चयतः नही कहा जा सकता कि ही किसी ममय लिखा होगा। वहां उल्लिखित अमोघवर्पसे उपर्युक्त नरेशका ही तात्पर्य श्रीयुक्त एम० गोविन्द पैने अपने एक लेखमें है; क्योंकि "अमोघवर्ष नृपतुङ्ग उपाधियोंसे युक्त नरेश प्रकट किया है कि अमोघवर्पके जैनधर्म स्वीकार करने बहुत से होगये हैं। अथवा यह वही राजा माना जाय सम्बन्धी सभी श्राधार निर्मूल मालूम पड़ते हैं। इस तो भी उक्त उल्लेखमे उसका जैनधर्मका स्वीकार सम्बन्ध में उनका प्रथम आक्षेप यह है कि उक्त नरेशके करना सिद्ध नही होता । प्रश्नोत्तररत्नमालिकाकी जो "५२ वें वर्पके शासन में ‘स वोऽव्यात्' इस प्रकारका अमोघवर्षके राज्यत्यागका उल्लेग्य करने वाली अन्तिम हरिहर-स्तुति सम्बन्धी शिरोलेख रहनेमे तब तक उनने पुष्पिका है वह शेष काव्यक छंदसे भिन्न छंदमें होने के जैनधर्मको ग्रहगा नही किया था, ऐसा कहने में कोई कारण काव्यका मालिक अंश न होकर पीछस जोड़ा आक्षेप नहीं दीखता।" किन्तु एक तो इस उल्लेग्वपर हश्रा छंद हो सकता है।" इत्यादि । पैजीक ये सब से उक्त नरेशके ५० वें वर्पके पश्चात जैन दीक्षा ग्रहण आक्षेप तभी कुछ सार्थकता रखते हैं जब पहले से ही करनेमे कोई बाधा उपस्थित नहीं होती । और दूसरे यह निश्चय कर लिया जाय कि अमोघवर ने कभी शासन शिगेलेख आदि राज्य कर्मचारियों द्वारा प्रायः जैनधर्म ग्रहण नहीं किया था । यदि एकाध ही उल्लेख राज्य-विभागकी परंपरानुमार लिखे जाते हैं, वे मदैव अमोघवर्प के जैनत्वक संबन्धका होता तो भी उक्त किमी गजाकी निजी धार्मिक मनोवृत्तिके सच्चे प्रकारकी आपत्ति कुछ मूल्यवान हो सकती थी । पर परिचायक नहीं कहे जा सकते। पै जी का दूसरा आक्षेप अनेक ग्रन्थोक उल्लेखांको उक्त प्रकार बिना किसी यह है कि उत्तरपुगगगमे जो अमोघवर्प के जिनमेनकी आधारके, केवल शक पदसे ही अप्रमाण ठहराना वन्दनाका उल्लेख है वह "जिनमेन और अमोघवर्षके उचित नहीं जंचता । अगोघवर्पक जैनत्वकी मान्यताकी बीचमे एक समय परस्पर भटका वात मालूम पड़ता प्रचीनता और मौलिकताको प्रसिद्ध गारनेम कोई प्रबल है, इसमें ज्यादा अर्थ उसमे अनुमान करना ठीक नही दलील पैजीक ले बम नहीं पाई जाती । अमोघवर्षमालूम होता।” पार्वाभ्युदयकी जिन सर्गान्त पुष्पिकाओं मम्बन्धी समस्त उल्लग्बोंपरसे उनके जैनत्व स्वीकार में जिनसनको अमोघवर्ष गजाका परमगुरु कहा है, करनेमे कोई ऐतिहासिक विसंगति उत्पन्न नहीं होती। वे पुप्पिकार उनके मतम जिनसेनकी स्वयं रचना न होकर "उस काव्यक टीकाकार योगिगट पंडिनाचार्य *जैनमिद्धान्तभास्कर की दालकी किरण (भाग ६ कि१) १. नृानुगका मन विचार, अनेकान्त, वर्ष ३, पृ.५७ श्रादि में उद्धृत । जरूरी सूचना गत किरणमे पृष्ठ १०६ पर जो 'अावश्यक सूचना' अनेकान्तके प्रथम वर्षकी ११ किरणोवाली फाइल के लिये निकाली गई थी उसमे पोष्टेजके ग्यारह पाने महित एक रुपया ग्यारह याने १) की जगह गलती मे १||1) छप गये, इससे फाइल मँगाने वालो को जो चार पाने अधिक भेजने पड़े, उसके बदलेमे उन्हे 'बनारसी-नाममाला' भेज दी गई। अत: अागे को जो सज्जन उक्त फाइल मगाएँ उन्हें एक रुपया ग्यारह अाने शीघ्र मनीभाईरसे भेजने चाहिये । फिर फाइले नही मिल सकेगी-थोड़ी ही अवशिष्ट रह गई हैं। व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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