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अनेकान्त
[ वर्ष ५
प्रधान होगया है। प्रथमपद्यमें अमोघवर्ष प्राणीरूपी करनेका स्पष्ट उल्लेख है। ऐसे नृपतङ्गदेवक शासन सस्यसमूहको संतुष्ट व निरीति और निरवग्रह करने-' अर्थात धर्मशासनकी वृद्धिकी श्राशा की गई है। वाले और स्वेष्टहितपी कहे गये है। यहाँ राजाके ईति- इस प्रकार इम प्रशस्तिसे कोई संदेह नहीं रहता निवारण और अनावृष्टिकी विपत्तिके निवारणके कि राष्ट्रकूट-नरेश नृपतुङ्ग अमोघवर्षने राज्य त्यागकर साथ साथ सब प्राणियोकी ओर अभय और रागदेष- मुनिदीक्षा धारण कर ली थी और उन्होंने अपनी रहित वृतिका उल्लेख है। इस प्रकार वे आत्मकल्याण- चित्तवृत्तिको विशुद्ध और निर्मल बनाने में कुछ उठा परायण होगये थे, यह "स्वेष्टहितैषिणा” विशेषण से नही रखा था ! स्पष्ट है। दूसरे पद्यमें उनके पापरूपी शोका उनकी अब रह जाती है प्रेमीजीकी यह शंका कि यदि चित्तवशिरूपी नपोज्वालामें भस्म होनेका उल्लेख है। उन्होंने मुनि-दीक्षा धारण कर ली थी, तो राजा अपने शत्रोंको अपने क्रोधकी अग्निम भस्म फिर उन्होंने अपना नाम क्यों नहीं बदला ? पर यह कर डालता है। इन्होंने कामक्रोधादि अंतरंग शत्रुओ आवश्यक नहीं है कि मुनि-दीक्षा लेने पर नाम अवश्य को कपायरहित चित्तवृत्तिस नष्ट कर दिया था । वे ही बदलना चाहिये । विशेषतः जब इतना बड़ा सम्राट अबध्यकोप होगये थे, उनके क्रोधकपायका बंध नहीं दीक्षा लेता है, तो उसके पूर्व नाम के साथ जो यश रहा था। तीसरे पदाम उनके समस्त जगतको वशीभूत र कीर्ति सम्बद्ध रहती है, उसकी रक्षाय लोग उसके करने, किन्तु स्वयं किमीके वशीभूत न हानेस उन्ह उसी नामको कायम रखना पसंद करेंगे हो । इसी "अपूर्व मकरध्वज" कहा है। यहाँ भी उनके चक्रवर्ति- कारण मौर्य नरेश चंद्रगुतका नाम उनके मुनि हो जान त्वकी अपेक्षा उनके समस्त इन्द्रियों व सांसारिक भाव- पर भी चन्द्रगुप्त ही कायम रहा पाया जाता है । अत नाश्रोको जीतकर वीतरागत्व प्राप्त कर लेनेकी ओर एव प्रश्नोत्तर-रत्नमालिकामं उसके लेखकका राज्यत्याग विशेष लक्ष्य है। चौथे पद्यमे उनकी एक 'चक्रिका और दीक्षाधारण के पश्चात भी यदि अमोघवर्ष नाम भज्जन' पदवीकी सार्थकता सिद्ध की है। राजमंडलको उल्लिखित किया गया है, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। वश फरनेके अतिरिक्त यहां स्पष्टतः उनके क्रमशः अमोघवर्पक वृद्धत्वक कारण उनके दीक्षाग्रहण तपस्या-वृद्धि-द्वारा संसारचक्र-परिभ्रमणका क्षय करने करनेकी असंभावना भी प्रबल नही है। राज छोड़नेक का उल्लेख है । पांचवें पद्यमें उनकी विद्याप्राप्ति समय अमोघवर्ष वृद्ध तो थे, पर ८० वर्ष के नहीं। और मर्यादाओंकी वनवेदिका द्वारा उनकी ज्ञानवृद्धि उनके शक ७८८ के ताम्रपत्रमें उल्लेग्य है कि उनक और महाव्रतोके परिपालनका उल्लेख किया गया है पिता गोविन्दराज जब अपनी उत्तरभारतकी विजय 'रत्नगर्भ' विशेषणसे स्पष्टतः उनके दर्शन, ज्ञान और पूर्ण कर चुके थे, तब अमोघवर्षका जन्म हुआ था। चारित्ररूपी रत्नत्रयके धारणका भाव प्रगट किया गया गोविंदराजकी उत्तरभारतकी विजयका काल सन ८०६ है। उनके 'यथाख्यात चारित्रके जलधि' विशेपणमं से ८०८ तक सिद्ध होता है । अतएव जब वे सन् तो निःसंशयरूपसे उनके पूर्णमुनि और उत्कृष्टध्यानी ८१४-८१५ में सिंहासनारूढ़ हुए, तब उनकी अवस्था होनेका वर्णन है । 'यथाख्यातचारित्र' जैनसिद्धांतकी केवल ६ वर्षकी' और जब सन् ८७७ के लगभग एक विशेषसंज्ञा है जो मुनिसकलचारित्रको धारण उन्होंने राज त्यागा, तब उनकी आयु ७० वर्ष से कुछ करके भावोंकी विशद्धिद्वारा समस्त कषायोंको शांत या कम की ही सिद्ध होती है । इस समय तक जिनक्षीण कर देता है उसे ही यथाख्यात चारित्रका धारी सेनाचार्य और संभवतः उनके शिष्य गुणभद्रका स्वर्गकरते हैं। इस पद्यमें तो अमोघवर्षके मुनित्वके वर्णन वास हो चुका था, इसीसे उनकी किन्ही भी प्रशस्तियों होने में कोई संदेह ही नहीं रहता । अंतिम पद्यमें उनके १ Altekar: The Rashtra Kutos and एकांत छोड़कर अनेकान्तस्याद्वादन्यायका अवलंबन thier times. P.71-72.