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किरण ५)
राष्ट्रकूट-नरेश अमोघवर्षकी जैन दीक्षा
मनुष्यको अपनी वृद्धावस्थामें संसारके झंझटोंसे एक और बड़ा प्रमाण उपलब्ध है, जिसकी ओर अभी अलग होकर जीवन के उच्चतम आदर्शको प्राप्त करना तक इतिहासज्ञोंका पूर्ण ध्यान नहीं गया । अमोघवर्ष चाहिये।
नृपका उल्लेख महावीराचार्य ने भी अपने गणितसारतब क्या प्रश्नोत्तर-रत्नमालिकामें अमोघवर्षके
संग्रहमे किया है और इस उल्लेखकी सूचना उपर्युक्त किसी ऐसे ही एक अल्पकालीन राज्यत्यागका उल्लेख
समस्त इतिहासज्ञोंक लेखोंम पाई जाती है । किन्तु है और उमी अल्पकालमें वह रचना करके वे पुनः
गणितसारसंग्रहके पूरे उल्लेखका किसीने अभी तक सिंहासन पर श्राठे होगे? यह बात तो सच है कि गंभीर अध्ययन नही किया, श्रीर इमीलिये उसमे उपजब शक ७८८ के लग्बमें उनके गज्यत्यागका उल्लेख यक्त विपयपर जो प्रकाश पड़ना चाहिये था वह अभी है, तब किसी अल्पकालीन त्यागका ही वहां अभिप्राय तक नही पड सका । अब हम यहां महावीराचार्य द्वारा हो सकता है; क्योकि उसके पश्चात शक ७८६ व गरिगतसारमंग्रहमें दी हुई अमोघवर्षकी प्रशस्तिका शक ७E के भी उनके लेख पाये गये हैं। किन्तु परिचय कराते हैं। जिस राज्य-त्यागका उल्लेख 'प्रश्नोत्तर-रत्न-मालिका' में
गणि सारसंग्रहके प्रारंभमे मंगलाचरण है जिसके पाया जाता है, वह त्याग ऐमा अल्पकालीन प्रतीत
प्रथमपद्यम अलंध्य, त्रिजगत्मार, अतन्तचतुष्टयक धारी नही होता । उस ग्रन्थक भीतर जो भाव भर है, व महावीर जिनेन्द्रको नमस्कार किया गया है। दूसरे पद्य लेखकक स्थायी वैराग्यके परिचायक हैं और अन्तमें
मे उन महाकान्तिधारी जैनेन्द्रको प्रणाम किया गया है,
- TEE 'विवेकात्यक्तराज्येन' विशेषण लगाया गया है । उसमे जिन्होंने संख्याक ज्ञानरूपी प्रदीपसे समस्त तो यही जान पड़ता है कि राजाका इस बारका त्याग जगतको प्रकाशित कर दिया है। तीसरम आठवे पद्य क्षणिक नही, स्थायी था, उन्होंने विवेकपूर्वक यह तक अमोघवर्पकी प्रशस्ति है, जो इस प्रकार हैत्याग किया था। पर राज्य छोड़कर उन्होंने किया क्या, यह फिर भी अनिश्चित ही रहा । क्या वे गृहस्थ
प्रीणिनः प्राणिमस्याघो निरीतिनिरवग्रहः । रहकर एकान्तमे धर्मचिन्तन करते रहे, या हिन्द
श्रीमतामोघवर्षेण येन म्वेष्टहितैपिणा ॥१॥ संन्यासी या जैनमुनि बन गये ? पं० नाथूरामजी
पापरूपाः परा यस्य चिनवृनिहविर्भुजि । प्रेमीका मत है कि
भस्ममाद्भावमीयस्तेऽवन्ध्यकोपोऽभवत्ततः ॥२॥ "यह बात अभी विवादापन्न ही है कि अमोधवर्ष वशीकुर्वन् जगन्मवै स्वयं नानवशः परः। ने राज्यको छोड़कर मुनि-दीक्षा ले ली थी या कवल नाभिभूत: प्रभुस्तस्मादपूर्वमकरध्वजः॥३॥ उदासीनता धारण करके श्रावककी कोई उत्कृष्ट प्रतिमा यो विक्रमक्रमाक्रांतचकिचक्रकृतक्रियः । का चरित्र ग्रहण कर लिया था। हमारी समझमें यदि चक्रिकामञ्जनो नाम्ना चक्रिकाभानोऽञ्जसा ||४|| उन्होंने मुनि-दीक्षा ली होती, तो प्रश्नोत्तर-रत्नमाला
यो विद्यानद्यधिष्टानो मर्यादावज्रवेदिकः । में वे अपना नाम 'अमोघवर्ष' न लिग्बकर मुनि अव
रत्नगर्भो यथाख्यातचारित्रजलधिर्महान् ॥ ५ ॥ स्थामें धारण किया हुआ नाम लिखते । इसके सिवाय
विध्वस्तैकानपक्षम्य स्याद्वादन्यायवादिनः । राज्यका त्याग करनेके समय उनकी अवस्था लगभग देवस्य नृपतुङ्गस्य वर्धतां तस्य शासनम् ॥६॥ ८० वर्षकी थी, इसलिये भी उनका कटिन मुनिलिंग इस प्रशस्तिपर विचार करनेमें स्पष्ट ज्ञात होता धारण करना संभव प्रतीत नहीं होता।"
है कि लखकन यहाँ अमोघवर्षकी राजवृत्तिके साथउपर्युक्त उपलब्ध प्रमाणोंपरस यह निष्कर्ष निका- साथ वचक विशेषणोंद्वारा उनकी मुनिवृत्तिका लना सयुक्तिक ही है। पर इस विपयके निर्णयके लिये वर्गात किर
नण्यक लिय वर्णन किया है। यही नहीं, किन्तु अंत तक जाते-जाते ५ विद्वद्रत्नमाला, पृ० ८४ ।
राजवृत्ति-वर्णन बहुत गौण और मुनिवृत्तिवर्णन ही