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प्रशस्ति में इनको सदा राज्य करते रहनेका आशीर्वाद दिया है । इसी पार्श्वभ्युदय काव्यकी सर्गान्त पुष्पिकाओं में जिनसेनाचार्य अमोघवर्ष नरेश के 'परमगुरु' कहे गये हैं ।
(२) जिनसेनाचार्य के शिष्य गुणभद्रने उत्तरपुराण में कहा है कि अमोघवर्ष नृपति जिनसेनाचार्य को प्रणाम करने से अपनेको पवित्र समझता था। 3
अनेकान्त
(३) 'प्रश्नोत्तर - रत्नमालिका' नामक एक छोटासा सुन्दर सुभाषित काव्य है । यह काव्य इतना लोकप्रिय हुआ कि श्वेताम्बर जैनियोंने उसे अपनाकर विमल सूरिकृत प्रकट किया है और हिन्दुओंने शंकराचार्य कृत मानकर उसका आदर किया है। किन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय इसे अमोघवर्षकृत ही माना है और इस का समर्थन एक तिब्बती अनुवाद से भी होगया है ।" इस काव्य आदि में कर्ताने वर्धमान तीर्थंकर को नमस्कार किया है ।" और अन्त के पद्यमें कहा गया है कि "यह विद्वानोंको सुन्दर अलंकाररूप रत्नमालिका राजा अमोघवर्षकी बनाई हुई है, जिन्होंने विवेकसे राज्यका त्याग कर दिया।
इन उल्लेखों परसे ज्ञात होता है कि अमोघवर्ष नरेशने न केवल जैनधर्म की ओर झुकाव ही दिखाया था, किन्तु जैनगुरुयोंकी वे बड़ी भक्ति करते थे । १ 'भुवनभवतु देवः सर्वदामोघवर्पः '
२ इत्यपरमेश्वरपरमगुरू श्री जिनसेनाचार्यविरचिते मेत्रभगवत्कैवल्यवर्णनं दूतवेष्ठिते पार्श्वभ्युदये चतुर्थः सर्गः ।
नाम
३ शुनखाशुजालविमरद्वारान्नराविर्भवत्पादाम्भोजन: पिशङ्गमुकुटमत्युग्ररत्नद्युतिः । संस्मर्ता स्वममोघवनृपतिः पूतोऽहमद्येत्यलं स श्रीमान् जिनमेनपूज्य भगवलादो जगन्मङ्गलम् ॥ History
४ Bhandarkar : Early
the Decean, P. 95.
५ प्रणिपत्य वर्धमानं, प्रश्नोत्तर रत्नमालिका वक्ष्ये । नागनरामरवंद्यं देवं देवाधिपं वीरम् ॥
६ विवेकाच्यक्तराज्येन राज्ञेयं रत्नमालिका । रचित मोघवर्षेण सुधिया सरलंकृतिः ॥
[ वर्ष ५
अन्तिम उल्लेखसे तो ज्ञात होता है कि अन्ततः वैराग्य से उन्होंने राजपाट त्याग ही कर दिया था । किन्तु राज्य त्यागकर उन्होंने क्या किया, इस विषय पर उक्त इतिहासज्ञोंने अपना भिन्न भिन्न मत प्रकट किया है। सर भंडारकरने तो अपने इतिहास में इतना ही कहा है कि "उनका जैन धर्म स्वीकार करना ठीक प्रतीत होता है !" रेऊजीका कहना है कि - " इसमे प्रतीत होता है कि अपनी वृद्धावस्था में इस राजाने राज्यका भार अपने पुत्रको सौपकर शेप जीवन धर्मचिन्तन में बिताया था।" डा० अल्टेकरने बतलाया है कि अमोघवर्षके राज्य त्याग के सम्बन्धका उल्लेख एक ताम्रपत्र में भी पाया जाता है । यह ताम्रपत्र अमोघवर्ष के ५२वें राज्यवर्षका, शक का लिखा हुआ हूँ । किन्तु उस उल्लेखसे ज्ञात होता है कि उन्होंने एक नही अनेक बार राज्य त्याग किया था । इस परसे डा० अत्तेकरका मत है कि
of
It would seem that he was often
putting his Yuvaraj or the ministry in charge of the administration, in order to pass some days in retirement and contemplation in the company of his Jaina gurus. This again shows the pious monarch trying to put into practice the teachings boh of Hinduism and Jainism which require a pious person to retire from life of the advent of old age in order to realise the highest ideals of human lite"
अर्थात् पूर्वोक्त उल्लेखपर से ऐसा मालूम होता है कि अमोघवर्ष कई बार अपने युवराजको या मंत्रिResort राज्यभार सौंपकर कुछ दिन एकान्तवास और ध्यान के लिये अपने जैनगुरुओं के साथ बिताया करते थे । इससे भी यही ज्ञात होता है कि ये धर्मात्मा नरेश हिन्दू और जैन के उन उपदेशो को अपने आचरण में उतारनेका प्रयत्न करते थे, जिनके अनुसार धर्मिष्ठ