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राष्ट्रकूट-नरेश अमोघवर्षकी जैनदीक्षा
[ले०–श्री प्रो० हीरालाल जैन एम० ए०, एल० एल० बी०]
राष्ट्रकूटवंशके राजा अमोघवर्ष (प्रथम) इतिहास- all the Rashtrakuta princes Amoप्रसिद्ध हैं। इन्हींने मान्यखट राजधानी बसाई, जो ghararsha was the greatest patron अपने वैभव और सौन्दर्यमें इन्द्रपुरीसे भी बढ़ गई of the Digambara Jainas; and the थी। इनके राज्यकालकी प्रशस्तियां शक संवत् ७३८ statement that he adopted the Jain से SEE तककी मिली हैं। उनसे पूर्व के राजागोविन्द- faith seems to the true." राज (तृतीय) का एक ताम्रपत्र शक ७३५ (सन् ८१३) अर्थात्-उपर्युक्त प्रमाणोंसे यह प्रतीत होता है का पाया जाता है, तथा अमोघवर्पका एक लेख शक कि समस्त राष्ट्रकूट राजाओमेंसे अमोघवर्ष सबसे GE का उनके राज्यकालके ५२वें वर्पका है । इन बड़ा दिगम्बर जैनियोका संरक्षक था; और उसके जैन उल्लेखोंपरसे उनके राज्यका प्रारम्भ सन ८१४-८१५ धर्म स्वीकार करनेकी बात भी यथार्थ प्रतीत होती है। सिद्ध किया गया है। इससे ज्ञात होता है कि अमोघ- उसी प्रकार विश्वेश्वरनाथजी रेऊने भी कहा है वर्पने सन ८१५ से ७७ तक ६२-६३ वर्ष अवश्य कि "इससे ज्ञात होता है कि यह राजा दिगम्बर जैनराज्य किया।
मतका अनुयायी और जिनसेनका शिष्य था।...... ____ अमोघवर्प नरेश किस धर्मके अनुयायी थे, इस इससे प्रतीत होता है कि अपनी वृद्धावस्थामें इस प्रश्नका उत्तर भी उनके सम्बन्धके अनेक ताम्रपत्र, राजाने राज्यका भार अपने पुत्रोंको सौंपकर शेष जीवन शिलालेख व साहित्यिक उल्लेखोंसे चल जाता है। धर्मचिन्तनमें बिताया था। उसी प्रकार डाक्टर एक कुशल नीतिज्ञ राजा फिसी धमे विशेपका पक्ष- अल्तेकरने स्वीकार किया है किपाती या विरोधी नही हो सकता । तदनुसार अमोघ- "In religion Anioghavarsha had वपके हिन्दुधर्म व जैनधर्मके प्रति सत्कार के अनेक great leaning towards Jainism" उल्लेख मिलते हैं। तो भी हिन्दूधर्म सम्बन्धी उल्लेख अर्थात "धर्मके सम्बन्धमें अमोघवर्षका भारी होनेपर भी इतिहासकारोंने यह स्वीकार कर लिया है मुकाव जैनधर्मकी ओर था।" कि अमोघवर्पकी यथार्थ चित्तवृत्ति जैनधर्मकी ओर जिन उल्लेखोंपर से उक्त इतिहासकारोने अमोघथी। इस सम्बन्धक प्राप्त उल्लेखोंका परिचय कराकर वर्पके जैनधर्मके अनुयायी या जैनधर्मकी ओर विशेप सर रामकृष्णगोपाल भंडारकरने अपने दक्षिणके आकर्पित होनेकी बात स्वीकार की है, वे संक्षेपतः इस इतिहासमें लिखा है--
प्रकार हैं:From all this it appears that of (१) वीरसेनाचार्यने अपनी धवलाटीका इन्हीं के १ रेउ: भारत के प्राचीन राजवंश, भाग ३, पृष्ठ ३६ आदि।
कालमें शक ७३८ में समाप्त की थी, तथा उनके शिष्य R Altekar: The Rashtra Kuta and
जिनसेनाचार्य ने अपने पार्वाभ्युदय काव्यकी अन्तिम their times. P. 71.
४ रेउः भारत के प्राचीन राजवंश, भाग ३, पृष्ठ ४४-४५ ३ Bhandarkar; The early History of ५ Altekar : The Rastrakutas and the Deccan P. 95.
their times. P. 88.