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________________ वह देवता नहीं, मनुष्य था ! (श्री दौलतराम 'मित्र') "हमने माना हो फरिश्ते शेखजी! परन्तु उसका उन्होंने कभी विरोध नहीं किया। जैसे नित्य आदमी होना बहुत दुश्वार है !!" देवपूजा। x x सुधारक भी वे पूरे थे । यह बात उनके लेखोसे बाबू सूरजमलजी जैन ता०७ जुलाई १६४२ को इन्दौर स्पष्ट ज़ाहिर होती है। में ५३ वर्षकी आयु पार करके उस पार चले गये। राजपुरुषोंका चित्त हरण कर लेनेका कठिन काम है. म. गांधीके कथनानुसार मृतकका तो गुणगान ही उसे भी वे साध लेते थे । और उसका उपयोग वे असहाय करना चाहिये । बाबूजीने मनुष्यत्व प्राप्त किया था, वे मनुष्य लोगोके बिगड़े काम बनाना तथा जैनधर्मके प्रचारमे करते थे। फिर भी मुझे यह कह देनेमे जरा भी संकोच नही थे। जनहितके लिये वे राजपुरुषोसे विरोध भी कर बैठते होरहा है कि उनमें मनुष्योचित कमजोरियां भी थी। थे। एक बार एसे विरोध करनेके कारण उन्हे इन्दौरसे यह मूरत सौम्य और प्रतिभाशाली थी। इस प्रतिमामे बाहर होना पड़ा था। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और श्रास्तिक्य गुण झलकते थे। बाबूजी कितने कर्मठ और प्रतिभाशाली व्यक्ति थे, शरीर रोगी था और आर्थिक स्थिति खराब पी फिर इस बातका पता यों लग जाता है कि वे किसी समय एक भी परोपकारके लिये वे आपत्तियोंका खयाल न करते थे।x साथ २१ पारमा ना साथ २१ पारमार्थिक संस्थानोका नेतृत्व करते थे। द्विजेन्द्रलालरायने अपने 'उसपार' नाटकमे ऐसे बुद्धिमत्ता उनमे इतनी थी कि उनके साधारण(बाबूजी जैसे) एक व्यक्तिकी कल्पना की है, जिसका नाम स्वाभाविक-नैसर्गिक ज्ञानके आगे विशेष ज्ञानीजनोको भोलानाथ है। प्राशा लेकर आये हुए गरीबके सामने भैप जाना पड़ता था। अपनी आर्थिक स्थितिका खयाल छोडकर इनका हाथ आगे उनका जैनधर्मपर श्वद्वान एक आकस्मिक घटनाबढ़ ही जाता था। इनके पास गया हश्रा व्यक्ति, कभी कुलधमके रूप में नहीं था, किन्तु परीक्षा प्रधानताके रूपमें निराश होकर लौटता किसीने नहीं देखा। था। जैनधर्म प्रचार के लिये जो अष्टनिमित्त बतलाये गये बाबूजीने अपना तन, मन, धन सबके लिये खुला हैं उनमेसे बहुतसे निमित्तोके जरिये उन्होंने जैनधर्मका रख छोड़ा था, जिसका जी चाहता उपयोग कर लेता। प्रचार किया है। इस परसे यह कहना अत्युक्ति नहीं होगा लोगोने दुरुपयोग भी किया पर उन्होंने किसीकी शिकायत कि वे मुक्तिके अधिकारी हैं। नहीं की। वे खुद या दोस्तोकेद्वारा यह ज्ञात हो जानेपर वे सबके थे, पर मेरी समझमें मेरे ज्यादा थे। एक कि दूसरा उनका दुरुपयोग कर रहा है, वे उसे दुरुपयोग वक्त हम दोनों सुख-दुखकी बात कर रहे थे कि मैं अपने करने देते। यह बात उन्हें प्यारी थी। अश्रु विन्दुओंमे उनका पाद-प्रक्षालन करने लगा तो उन्होंने सैकड़ों छात्रीको पदाईसे तथा सैकडो गृहस्थोंको रोजी भी मेरा मस्तकाभिषेक कर डाला। वे मुझे एक चीज़ से लगानेमें उन्होंने अपनी सारी शक्ति खपा डाली। दे गये हैं-मैंने उनसे कुछ सीखा है। मैं उनका कृतज्ञहे. मतभेदी तो क्या मतद्वेषी लोगोसे भी वे प्रेम करते थे। मैं जानता हूं, बाबूजीके निंदक भी हैं। उसका कारण हैबाबूजी प्राचीन संस्कृतिके काफी हिमायती थे। भले प नि कामायनीजले "द्विपंति मंदाश्चरितं महात्मनाम।” (कालीदास) ही संस्कृतिके किसी अंश या अंगको वे न अपना सके ही निमित्तटधा प्रोक्तं नमोभिर्जनरजकैः ।। * “जो फरिश्ते कर सकते हैं, कर सकता इंसान भी। धर्मोपदेशनैरन्यवादि दर्पतिशातनैः ॥ पर फरिश्तेसे न हो, जो काम है इंसानका।” (जौक) नृपचेनोहरै श्रव्यैः काव्यैः शब्दार्थसुदरैः। x पुमागत्यंत मेधावी चतुश्वकं समश्नुते । सद्भिः शौर्येण तत्कार्य शाशनस्य प्रकाशनं ।। अल्पायुरनपत्यो दरिद्रो वा रुमान्वितः ॥" रुचिप्रवर्तने यस्य जैनशाशनभासने । "स्वापदं नहि पश्यंनि सन्तः पारार्थ्यनलराः।" क्ष.चू. हस्ते तस्य स्थिता मुक्तिरिति सूत्रे निगद्यते ॥ (उत्तर पुराण)
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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