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________________ किरण ५ ] और उन्होंने यह कल्पना कर डाली है कि किसीने यह श्रन्यथा कथन भाष्यमें मिला दिया है, यही कारण है कि वे उन भाष्यवाक्य के कर्ताको अज्ञानी और उस भाष्यवाक्यको 'प्रमत्तगीत' तक कहने के लिए उतारू होगये हैं। परन्तु स्वयं यह नहीं बतल/ सके कि उस भाष्यवाक्यको किसने मिलाया, किसके स्थानपर मिलाया क्यों मिलाया कब मिलाया और इस मिलावटके निर्णयका श्राधार क्या है ? यदि उन्होंने भाष्यकारको स्वयं मृलसूत्रकार और पूर्ववित न माना होता तो वे शायद वैसा लिखनेका कभी साहस न करते । उनका यह तर्क कि वाचक उमास्वाति पूर्वके ज्ञाता थे, वे कैसे इस प्रकारका श्राविसंवादि वचन निबद्ध कर सकते थे।' कुछ भी महत्व नहीं रखता जब अन्य कितने ही स्थानोंपर भी श्रागमके साथ भाग्यका स्पष्ट विशेष पाया जाना है और जिसके कितने ही नमुने ऊपर बतलाये जा चुके हैं। पिछले ( नं० १०) नमूनेमे प्रदर्शित भाष्य के विषय में जब सिद्धसेन गणी स्वयं यह लिखते हैं कि " श्रागमस्त्वन्यथा व्यवस्थितः "आगमकी व्यवस्था इसके प्रतिफल है, और उसकी संगति बिटलानेका भी कोई प्रयत्न नही करते, तब वहीं भाष्यकारका पूर्ववित होना कहीं चला गया ? श्रथवा पूर्वबित होते हुए भी उन्होंने वहाँ 'श्रार्षविसंवादि' वचन क्यो निबद्ध किया ? इसका कोई उत्तर सिद्धसेनकी टीका परमे नही मिल रहा है और इसलिये जब तक इसके विरुद्ध सिद्ध न किया जाय तब तक यह कहना होगा कि श्वे० तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जांच 9 [ १ ] आज प्रलयकी आँधी आई, पाप घटा है सिर पर छाई ; पुण्य देवके प्राण टूटते धर्म माँगता सोन बिदाई ! क्रान्ति, शान्तिको चली हड़पनेपर, उसका ही नाम मिटेगा ! विश्वशान्तिका शंख बजेगा || भाष्यका उक्त वाक्य श्वे० श्रागमके विरुद्ध है और वह किसीके द्वारा प्रक्षिप्त न होकर भाष्यकारका निजी मत है । और ऐसे स्पष्ट विरोधोंकी हालत में यह नहीं कहा जा सकता कि भाय्यादिका एकमात्र श्राधार श्वेताम्बर श्रुत है । उपसंहार मैं समझता हूँ ये सब प्रमाण, जो ऊपर दो भागों में संकलित किये गये हैं, इस बातको बतलाने के लिए पर्याप्त है कि श्वेताम्बरीय तस्वार्थसूत्र और उसका भाग्य दोनों एक ही पाकी कृते नहीं है और न दोनोंकी रचना सर्वथा श्वेताम्बर श्रागमोंके श्राधारपर अवलम्बित है, उस में दिगम्बर श्रागमोंका भी बहुत बड़ा हाथ है और कुछ मन्तव्य ऐसे भी है जो दोनों सम्प्रदाय से भिन्न किसी तीसरे ही सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखते हैं अथवा सूत्रकार तथा भाष्यकारके निजी मतभेद हैं। और इसलिये उक्त दोनों दावे तथ्यहीन होने से मिथ्या हैं । श्राशा है विद्वजन इस विषयपर गहरा विचार करके अपने-अपने अनुभवोंको प्रकट करेंगे। जरूरत होनेपर जच पडतालकी विशेष बातों को फिर किसी समय पाठकोंके सामने रक्खा जायगा । ता० १८-७-११४२ ] वीर - सेवा मन्दिर, सरसावा १८१ * इस विषयकी विशेष जानकारी प्राप्त करनेके लिये पीजीको नामका वह निबन्ध देखना चाहिए जो चतुर्थ वर्षक 'अनेकान्त' की प्रथम किरणम प्रकाशित हुआ है । शान्ति-भावना [ २ ] ढोग और पाखण्ड बढ़े हैं, हेपदम्भ खम ठोक संडे हैं! न्याय-नीतिका गला घोटनेहिंसाके जहाद पड़े है ! जगकी नस-नस में वीरोंकारक्त, अहिंसा भाव भरेगा ! विश्वशान्तिका शंख बजेगा !! [ श्री काशीराम शर्मा 'प्रफुलित' ]
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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