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अनेकान्त
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है। और स्नातक मुनि श्रुतसे रहित केवली होते हैं। रात्रिक्यस्तिस्रः' इस भाष्यांशको भागमके साथ प्रसंगत,
इस विषयमें आगमकी जिस अन्यथा व्यवस्थाका प्रार्षविसंवादि और प्रमत्तगीत तक बतलाते हुए उल्लेख सिद्धसेनने किया है वह इस प्रकार है
लिखते हैं:"पुलाए णं भंते केवतियं सुयं अहिजि (ज्जे ?) "सप्तचतुर्दशैकविंशतिरात्रिक्यस्तित्र इति नेदं ज्जा ? गोयमा ! जहरणेणं णवमस्त पुवस्स तत्तियं पारमर्पवचनानुसारि भाष्यं; कि तर्हि प्रमत्तगीतमेतत। आयारवत्थु, उक्कोसेणं नव पुयाहं पुएगाई। वाचक हि पूर्ववित कथमेवं विधमार्पविसंवादि निबवउम-पडिसेवणा-कुसीला जहण्णणं अट्ठपवयः- धीयात ? सूत्रानववोधादुपजातभ्रान्तिना केनापि मायाश्रो, उक्कोसेणं चोदसपुवाई अहिज्जिज्जा। रचितमेतद्वचनकम । दोच्चा सत्तराईदिया तइया फसायकुसील-निग्गंथा जहएणणं अट्ठपवयणमायाओ, सत्तराईदिया-द्विर्त या सप्तरात्रिकी तृतीया सप्तरात्रिउक्कोसेणं चौदसपुव्वाइं अहिज्जिज्जा।"
कीति सूत्रनिर्भेदः । सप्तरात्रे त्रीणीति सप्तरात्रीति इसमें जघन्य श्रुतकी जो व्यवस्था है वह तो भाष्यके सूत्रनिर्भदं कृत्वा पठितमझेन सप्तचतुर्दशैकविंशतिरात्रिसाथ मिलती जुलती है, परन्तु उत्कृष्ट श्रुतकी व्यवस्थामें क्यस्तित्र इति ।" भाध्यके साथ बहत कुछ अन्तर है। यहाँ पुलाक मुनियोंके अर्थात्-'सप्तचतुर्दशैकविंशतिराविषयस्तिस्रः' यह उत्कृष्ट श्रतज्ञान नवपूर्व तक बतलाया है, जब कि भाप्यमें भाष्य परममार्षवचन (आगम) के अनुकूल नहीं हैं। फिर दसपूर्व तकका स्पष्ट निर्देश है। इसी तरह बकुश और क्या है ? यह प्रमत्तगीत है-पागलों जैसी बरड है अथवा प्रतिसेवनाकुशील मुनियोंका श्रुतज्ञान यहाँ चौदहपूर्व तक किसी पागलका कहा हुआ है। वाचक (उमास्वाति) पूर्वके सीमित किया गया है, जब कि भाप्यमें उसकी चरमसीमा ज्ञाता थे, वे कैसे इस प्रकारका पार्षविसंवादि वचन निबद्ध दसपूर्व तक ही कही गई है। अत: श्रागमके साथ इस कर सकते थे? श्रागमसूत्रकी अनभिज्ञतासे उत्पन्न हुई प्रकारके मतभेदोंकी मौजूदगी में जिनकी संगति बिठलानेका भ्रान्तिके कारण किसीने इस वचनकी रचना की है। सिद्धसेन गणीने कोई प्रयान भी नहीं किया, यह नही 'दोच्चा सत्तराइ दिया तइया मत्तराइंदिया-द्वितीया कहा जा सकता कि उक्त सूत्रके भाष्यका प्राधार पूर्ण नया सप्तरात्रिकी तृतीया सप्तरात्रिकी ऐमा श्रागमसूत्रका निर्देश श्वेताम्बर श्रागम है।
है. इसे 'देसप्तराने त्रीणिति सप्तरात्राणीति' ऐसा मूत्रनिभेंट (11) नवमे अध्यायमें उत्तमतमादि-दशधर्म-विषयक जो
करके किसी अज्ञानीने पढ़ा है और उसीका फल 'सप्तचतुसूत्र है उसके तपोधर्म-सम्बन्धी भाष्यका अन्तिम अंश ।
दंशैकविंशतिरात्रिक्यस्तिस्रः' यह भाष्य बना है। इस प्रकार है:
"तया द्वादश भेन प्रतिमाः मामिक्यादयः श्रा- सिद्धसेनको इस टीकापरसे ऐसा मालूम होता है कि सप्तमासिक्यः सप्त, सप्तचतुर्दशकविंशतिरात्रिक्यस्तिस्रः सिद्धसेनके समयमें इस विवादापन भाष्यका कोई दूसरा अहोरात्रिकी, एकरात्रिकी चेति ।"
पागम संगतरूप उपलब्ध नहीं था, उपलब्ध होता तो इसमें भिक्षोंकी बारह प्रतिमाओंका निर्देश है, जिनमे वह सिद्धसेन-जैसे ख्यातिप्राप्त और साधनसम्पन्न प्राचार्यको सात प्रतिमाएं तो एकमामिकीसे लेकर सप्तमासिकी तक जरूर प्राप्त होता, और प्राप्त होनेपर वे उसे ही भाष्यके बतलाई है, तीन प्रतिमाएँ सप्तरात्रिकी, चतुर्दशरात्रिकी रूपमें निबद्ध करते-आपत्तिजनक पाठ न देते, अथवा और एकविंशतिरात्रिकी कही है, शेष दो प्रतिमाएँ अहो. दोनों पाठोंको देकर उनके सत्याऽसत्यकी पालोचना करते। रात्रिकी और एकरात्रिकी नामकी हैं।
दूसरी बात यह मालूम होती है कि सिद्धसेन कि पहलेसे सिद्धसेन गणीने उक्त भाष्यकी टीका लिखते हुए भागम भाष्यको मूल सूत्रकारकी स्वोपज्ञकृति स्वीकार कर चुके थे के अनुसार सप्तरात्रिकी प्रतिमाएं तीन बतलाई है-चतुर्दश- और सूत्रकारको पूर्ववित् भी मान चुके थे, ऐसी हालतमें रात्रिकी और एकविंशतिरात्रिकी प्रतिमाओंको भागम-सम्मत जिस तत्कालीन श्वे. आगमके वे कट्टर पक्षपाती थे उसके नहीं माना है, और इसलिये भाप 'सप्तचतुर्दशेकविंशति- विरुद्ध ऐसा कथन मानेपर वे एकदम विचलित हो उठे हैं