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किरण ५]
श्वेतत्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जांच
मतभेद रहा है। इसके लिये लेखकका 'जैनाचार्योका लेकर मतिज्ञानके भेदोकी परिगणना की गई है तथा संज्ञी. शासनभेद' ग्रन्थ देखना चाहिये।
असंजीके भेदोंको भी प्राधान्य दिया गया है ? इन प्रश्नोंका (E) आठवें अध्यायमे 'गति जाति' श्रादिरूपसे नाम- कोई समुचित समाधान नहीं बैठता, और इसलिये कहना कर्मकी प्रकृतियोका जो सूत्र है उसमें पर्याप्ति' नामका भी होगा कि यह भाष्यकारका श्रागमनिरपेक्ष अपना मत है, एक कर्म है । भाप्यमे इस 'पर्याप्ति के पांच भेद निम्नप्रकार जिये किसी कारण विशेषके वश होकर उसने स्वीकार स बतलाए हैं
किया है। अन्यथा, इन्द्रियपर्याप्तिका स्वरूप देते हुए वह "पर्याप्तिः पचविधा । तद्यथा-आहारपर्याप्तिः इसका स्पष्ठी करण जरूर कर देता। परन्तु नही किया शरीरपर्याप्तिः इन्द्रियपर्याप्तिः प्राणापानपर्याप्तिः भापा- गया, जैसाकि "त्वगादीन्द्रियनिर्वर्तक्रियापरिसमाप्तिपर्यापिरिति।"
रिन्द्रियपर्यानिः" इस इन्द्रियपर्याप्तिके लक्षणसे प्रकट है। ___ परन्तु दिगम्बर अागमकी तरह श्वेताम्बर श्रागममे अत: श्वताम्बर भागमके साथ इस भाष्यवाक्यकी संगति भी पर्याप्तिके छह भेद माने गये है। -छठा भेद मन'- बिठलानेका प्रयत्न निष्फल है। पयोप्तिका है, जिसका उक्त भाष्यमे कोई उल्लेख नहीं है । (१०) नवम अध्यायका अन्तिम सूत्र इस प्रकार है-- और इस लिये भाष्यका उक्त कथन पूर्णत: श्वेताम्बर "मयम-श्रत - प्रतिमेवना - तीर्थ-लिङ्ग-लेश्योपपातश्रागमके अनुकूल नहीं है । इस असंगतिको मिद्धसेन स्थानविकल्पतः साध्याः।" गणीने भी अनुभव किया है और अपनी टीकामे यह प्रश्न इसमें पुलाकादिक पंचप्रकार के निर्ग्रन्थ मुनि संयम, श्रत, उठाया है कि 'परमार्पवचन (आगम) में तो षट् पर्याप्तियों प्रतिसेवना श्रादि पाठ अनुयोगद्वारोंके द्वारा भेदरूप सिद्ध प्रसिद्ध हैं, फिर यह पर्याप्तियोंकी पांच संग्ख्या कैसी?'; किये जाते हैं, ऐसा उल्लेख है। भाज्यमें उस भेदको स्पष्ट जैसा कि टीकाके निम्न वाक्यमे प्रकट है--
करके बतलाया गया है, परन्तु उस बतलाने में कितने ही "ननु च पट पयातयः पारमापवचनसिद्धाः कथं स्थानोंपर श्वेताम्बर श्रागमके साथ भाष्यकारका मतभेद पंचसंख्याका ? इति"।
है, जिसे सिद्धसेन गणोने अपनी टीकामें 'श्रागमस्त्वन्यथा बादको इसके भी समाधानका वैसा ही प्रयत्न किया व्यवस्थितः', 'अत्रैवान्यथैवागमः', 'अवाप्यागमोऽन्यगया है जो किसी तरह भी हृदय-ग्राह्य नहीं है । गणीजी थाऽतिदेशकारी जैसे वाक्योके साथ भागमवाक्योंको उद्धृत लिखते हैं---"इन्द्रियपर्याप्तिग्रहणादिह मनःपर्याप्तरपि करके व्यक्त किया है। यहाँ उनमंसे सिर्फ़ एक नमूना दे देना ग्रहणमवमयम।" अर्थान इन्द्रियपर्याप्तिके ग्रहणसे यहाँ ही पर्याप्त होगा-भाष्यकार 'श्रत' की अपेक्षा जैन मुनियोंके मनःपर्याप्तिका भी ग्रहण समझ लेना चाहिये। परन्तु भेदको बतलाते हुए लिखते हैं-- इन्द्रियपर्याप्तिमे यदि मनःपर्याप्तिका भी समावेश है और "श्रतम । पुलाफ-बकुश-प्रतिसेवनाकुशीला उत्कृष्टमनःपर्याप्ति इन्द्रियपर्याप्तिसे कोई अलग चीज़ नही है नाऽभिन्नाक्षरदशपूर्वधराः । कपायकुशील-
निन्थी तो भागममें मन'पर्याप्तिका अलग निर्देश क्यों किया गया चनुदेशपूर्वधगे । जघन्येन पुलाकस्य श्रुतमाचारवस्तु, है और सुत्रमे क्यो इन्द्रियों सथा मनको अलग अलग बकुश-कुशील-निग्रन्थानां श्रतमपी प्रवचनमातरः।
- - श्रुतापगतः केवली स्नातक इति।" *पाहार मगरे दियपजत्ती श्राणपाण-भाष-मणे ।
अर्थात्-श्रतकी अपेक्षा पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना चउ पंच पंच छप्पिय इग-विगलाऽमणिगण-मएगीणं ।। कुशील मुनि ज्यादासे ज्यादा अलि माक्षर (एक भी अत्तरकी
-नवतत्वकरण, गा०६ कमीसे रहित) दशपूर्वके धारी होते हैं । कगायकुशील और अहार-सरीरं दिय-ऊमाम-वो-मणोऽहि निव्वती। निर्ग्रन्थ मुनि चौदह पूर्वके धारी होते हैं। पुलाक मुनिका होइ जनो दलियारो करणं एमाउ पजनी ।। कमसे कम श्रुताचार वस्तु है। बकुश, कुशील और निम्र
-सिद्धमेनं या टीकामे उद्धृत पृ० १६० थमुनियोंका कमसे कम श्रृत पाठ प्रवचनमात्रा तक सीमित