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अनेकान्त
[वर्ष ५
इस विषयका विशेष ऊहापोह पं० फूले चंदजी शास्त्रीने भिन्नः सूत्रकारेण ? आप तु गुणत्रतानि क्रमेणादिश्य अपने 'तत्वार्थसूत्रका अन्तःपरीक्षण' नामक लेखमे किया शिक्षाव्रतान्युपदिष्टानि सूत्रकारेण त्वन्यथा।" है, जो चौथे वर्षके अनेकान्तकी किरण ११-१२ (पृष्ठ ५८३. ___ इसकेबाद प्रश्न के उत्तररूपमें इस असंगतिको दूर ५८८) में मुद्रित हुया है। इसीसे यहाँ अधिक लिखनेकी करने अथवा उस पर कुछ पर्दा डालनेका यान किया गया जरूरत नहीं समझी गई।
है, और वह इस प्रकार है(6) सातवें अध्यायका १६ वौँ सूत्र इस प्रकार है:-- "तत्रायमभिप्रायः-पूर्वतो योजनशतपरिमितं
"दिग्देशानर्थदण्डविरतिमामायिकपीपधोपवासोप- गमनमभिगृहीतम । न चाम्ति सम्भवो यत्प्रतिदिवमं भोगपरिभोगपरिमाणाऽतिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च।” तावती दिगवगाह्या, ततस्तदनन्तरमेवोपदिष्टं देशत्रत____ इस सूत्र में तीन गुणव्रती और चार शिक्षावतोंके मिति देशे-भागेवस्थानं प्रतिदिनं प्रतिप्रहरं प्रतिक्षाभेदवाले सात उत्तरव्रतोंका निर्देश है, जिन्हें शीलवत भी मिति मुग्धावबोधार्थमन्यथा क्रमः।" कहते हैं। गुणवतोंका निर्देश पहले और शिक्षाव्रताका इसमें अन्यथाक्रमका यह अभिप्राय बतलाया है किनिर्देश बादमें होता है, इस दृष्टिसे इस सूत्र में प्रथम निर्दिष्ट 'पहलेसे किसीने १०० योजन परिमाण दिशागमनकी हुए दिग्नत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत, ये तीन तो गुण मर्यादा ली परन्तु प्रतिदिन उतनी दिशाके अवगाहनका वत हैं, शेष सामायिक, पौषधोपवास, उपभोगपरिभोगपरि- संभव नहीं है, इसलिये उसके बाद ही देशव्रतका उपदेश माण और अतिथिमविभाग, ये चार शिक्षाबत हैं। परन्तु दिया है। इससे प्रतिदिन, प्रतिप्रहर और प्रतिक्षण पूर्वश्वेताम्बर आगममे देशव्रतको गुणवतोंमे न लेकर शिक्षा
गृहीत मर्यादाके एक देशमें-एक भागमें श्रवस्थान होता वाम लिया है और इसी तरह उपभोगपरिभोगपरिमाणवत है। अत: सुखबोधार्थ-सरलतासे समझानेके लिये यह का ग्रहण शिक्षायतोमें न करके गुणवतोंमे किया है। जैसा अन्यथाक्रम स्वीकार किया गया है।' कि श्वे. भागमके निम्न सूत्रसे प्रकट है--
यह उत्तर बच्चोंको बहकाने जैसा है। समझमें नही "श्रागारधम्म दुवालसविहं आइक्वइ, तंजहा- पाता कि दंशबनको सामायिकके बाद रखकर उसका पंचअणुव्वयाई तिरिण गुणव्ययाई चत्तारि सिक्वा- स्वरूप वहां बतला देनेमे उसके सुखबोधार्थ में कौनसी वयाई । तिरिण गुग्गव्ययाई, तंजहा-अणत्थदंडबर- अड़चन पद्धती अथवा कठिनता उपस्थित होती थी और मणं, दिमिव्ययं, उपभोगपरिभोगपरिमारगं । चत्तारि वह अड़चन अथवा कठिनता श्रागमकारको क्यों नही सिक्खावयाई, तं जहा-सामाइयं, देसावगामियं, सम पडी ? क्या श्रागमकारका लक्ष्य मुम्बबोधार्थ नही था ? पोसहोपवास, अतिहिमविभागे।"
श्रागमकारने तो अधिक शब्दोमे अच्छी तरह समझाकर-- -औपपातिक श्रीवीरदेशना मूत्र ५७ भेदोपभेदको बतलाकर लिया है। परन्तु बात वास्तवम ___ इससे तत्वार्थशास्त्रका उक्त सूत्र श्वेताम्बर श्रागमके सुग्वबोधार्थ अथवा माग क्रमभेदकी नहीं है, क्रमभेद तो साथ संगत नहीं, यह स्पष्ट है। इस असंगतिको सिद्धसेन- दुसरा भी पाया जाता है-श्रागममे अनर्थदण्डवतको दिग्वत गणीने भी अनुभव किया है और अपनी टीकामें यह बत- से पहले दिया है, जिसकी सिद्धसैन गणीने कोई चर्चा लाते हुए कि 'पार्ष (श्रागम ) मे तो गुणवतोका क्रमसे नहीं की है। परन्तु वह क्रमभेद गुणवत-गुणवतका है, आदेश करके शिक्षाव्रतोंका उपदेश दिया है, किन्तु सूत्र. जिसका विशेष महत्व नहीं; यहां तो उस क्रमभेदकी बात कारने अन्यथा किया है, यह प्रश्न उठाया है कि सूत्रकारने है जिससे एक गुणव्रत शिक्षाव्रत और एक शिक्षावत गुणपरमश्रार्ष वचनका किमलिये उल्लंघन किया है ? जैसा कि प्रत हो जाता है। और इस लिये इस प्रकारकी असंगति निम्न टीका वाक्यसे प्रकट है
सुखबोधार्थ कहदेने मात्रसे दूर नहीं हो सकती। अतः ___ "सम्प्रति कमनिर्दिष्टं देशव्रतमुच्यते । अत्राह- स्पष्ट कहना होगा कि इसके द्वारा दूसरे शासनभेदको वक्ष्यति भवान देशवतं । पारमार्पवचनकमः कैमाद्- अपनाया गया है। प्राचार्यो-श्राचार्योमे इस विषयमे कितना ही