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________________ किरण ५] श्वे० तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जांच १४ अावश्यकापरिहाणि, १५ मार्गप्रभावना, १६ प्रवचन- विलक्षण लक्षण करके, इसके द्वारा उक्त बीस कारणों से वत्सलव। कुछ छूटे हुए कारणोंका संग्रह करना चाहा है: परन्तु फिर परन्तु श्वेताम्बर आगममें तीर्थकरस्वकी प्राप्तिके बीस* भी वे सबका संग्रह नहीं कर सके-सिद्धवत्सलता और कारण बतलाये हैं-सोलह नहीं और वे हैं-१ अहद्वत्स- क्षणलवसमाधि जैसे कुछ कारण रह ही गये और कई लता, रसिद्धव-सलता, ३प्रवचनवासलता, गुरुवत्सलता, भिश्च कारणोंका भी संग्रह कर गये हैं। इस विषयमें ५स्थविरवत्सलता, ६बहुश्रतवत्सलता, तपस्विवत्मलना, सिद्धसेनगणी लिखते हैंअभीषणज्ञानोपयोग, दर्शननिरतिचारता १०विनयनिरति- विंशतः कारणानां सत्रकारेण किंचितसत्रे किंचिदचारता, १ श्रावश्यकनिरतिचारता, १२शील नि तिचारता, भाप्ये किंचित आदिग्रहणात् सिद्धपूजा-क्षणलवध्यान१३६त नरतिचारता, १४क्षणलवसमाधि, १५तपःसमाधि, भावनाख्यमपात्तम उपयज्य च प्रवकूत्रा व्याख्येयम्।" १६'यागममाधि, १७ वैश्यावृश्यसमाधि, १८अपूर्वज्ञानग्रहण, अर्थात-बीस कारणोंमेंसे सूत्रकारमे कुछका सूत्रमें १६ श्रतभक्ति, २० प्रवचनप्रभावना, जैसाकि ज्ञाताधर्म कुछका भाप्यमें और कुछका-सिद्धपूजा पण लव भ्यानकथाग' नामक श्वेताम्बर भागमकी निम्न गाथाओंसे भावनाका-'आदि शब्दके ग्रहणद्वारा संग्रह किया है, प्रकट है: वक्ताको ऐसी ही व्याख्या करनी चाहिये। अरिहंत-सिद्ध-पबयण-गुरु थेयर-बहुमुए तवस्सीसु। वच्छलया य एमि अभिक्खनाणोवोगे अ॥शा इस तरह पागमके साथ सूत्रकी असंगतिको दूर करने दसणविणा आवस्सए अ सीलव्वए निरइचारो। का कुछ प्रयत्न किया गया है, परन्तु इस तरह असंगति दूर नहीं हो सकती-सिद्धसेनके कथनमे इतना तो स्पष्ट ही खणलवतवचियाए वेयावच्चे ममाही या है कि सूत्र में बीयों कारणोंका उल्लेख नहीं है। और इस अपुचणाणगहणे सयभत्ती पवयणे पहावणया। लिये उक्तसूत्रका अाधार श्वेताम्बर श्रुत नहीं है, । वास्तवमें पाहि कारणहिं तित्थयर लहइ जीवो ॥३॥ इनमें से सिद्धवमलता, गुरुवम्सलता, स्थविरवत्सलता, इस मूत्रका प्रधान प्राधार दिगभ्वर श्रुत है, दिगम्बर सूत्रतपस्वि-व-सलता, क्षणलबसमाधि और श्रपूर्व-ज्ञानग्रहण पाठके यह बिलकुल समकक्ष है इतना ही नहीं बल्कि नामके छह कारण तो ऐसे हैं जो उक्त सूत्रमे पाये ही नहीं दिगम्बर प्रान्नायमें आमतौर पर जिन सोलह कारणोंकी जाते, शेपमेसे कुछ पूरे और कुछ अधूरे मिलते जुलते हैं। मान्यता है उन्हींका इसमें निर्देश है। दिगम्बर खटखण्डा इसके सिवाय, उक्त सूत्रमें अभीषण संवेग, साधुसमाधि गमके निम्नसूनसे भी इसका भले प्रकार समर्थन होता हैऔर प्राचार्यभक्ति नामके तीन कारण ऐसे हैं जिनकी "दंमाविमुज्झदाए विण्यसंपगणदाए सीलवदेस गणना इन भागमकथित बीस कारणों में नहीं की गई है। रिणरदिचारदाप प्रवासामु अपरिहीणदाए खरणलवऐमी हा नतमें उक्त मूत्रका एकमात्र आधार श्वेताम्बर श्रुत परिबुज्मरणदाए लद्धिसंवेगमएएगदाए यथा थामे तथा (भागम) कैसे हो सकता है ? इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ तवे साहणं पासुअपरिचागदाएसाहरणं समाहिमधारणाय सकते हैं। माहणं वेज्जावञ्चजोगजुत्तदाए अरहंतभत्तीप. बहुसुदयहाँपर मैं इतना और भी बतला देना चाहता है कि भत्तीए पवयणभत्तीप पवयणवन्छलदाए पवयणप्पभाष्यकारने प्रवचनवसलवका "अच्छासनानुष्ठायिनां भावणाए अभिक्खरणं णाणोवजोगजुत्तदाए इच्चेदेहि श्रुतधराणां बाल-वृद्ध-तपस्वि-शैक्ष-ग्लानादीनां च संग्र- मोलमेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदकम्म होपग्रहानुग्रहकारित्वं प्रवचनवत्सलत्वमिति" ऐसा बंधंति ।" * पढम चरमेहि पुट्ठा जिणहेऊ वीस ते इमे- श्रुतधारी और बाल-वृद्ध-नरस्त्रि-शैक्ष तथा ग्लानादि जातिके -मत्तरिसयठाणाद्वार १० मुनियोका जो संग्रह-उपग्रह-अनुग्रह करना है उसका नाम +अर्थात्--अईन्तदेवके शासनका अनुष्ठान करने वाले प्रवचनवत्सलता है।'
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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