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अनेकान्त
[ वर्ष ५
की स्थिति पाठ सागरकी बतलाई है जैसाकि 'स्थानांग' "अजहण्णमाक्कोसा तेत्तीस सागरोपमा । और 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' के निम्न सत्रसे प्रकट है
महाविमाणे सव्व ठिई एसा वियाहिया ||२४|| "लोगंतिकदेवाणं जहएणमुक्कोसेणं अट्टसागरोव
-उत्तराध्ययनसूत्र अ०३६ माइंटिती पएणत्ता।"
और इमलिये यह स्पष्ट है कि भाष्यका 'एवमा सर्वार्थ- -स्था० स्थान सू०६२३ व्या, श०६ उ०५ मिद्धादिति' वाक्य श्वे. श्रागमके विरूद्ध है। सिद्धसेनगणी
ऐसी हालतमें सूत्र और भाष्य दोनोंका कथन श्वे. ने भी इसे महसूस किया है और इसलिये वे अपनी टीका भागमके साथ संगत न होकर स्पष्ट विरोधको लिये हुए में लिखते हैंहै। दिगम्बर आगमके साथ भी उसका कोई मेल नहीं है; "तत्र विजयादिप चतर्ष जघन्येनैकत्रिशदत्कण क्यों कि दिगम्बर सम्प्रदायमें भी लौकान्तिक देवोंकी उत्कृष्ट द्वात्रिशत सर्वार्थसिद्ध त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यजघन्यो
और जघन्य स्थिति आठ सागरकी मानी है और इसीसे स्कमा स्थितिः। भाष्यकारेण तु सर्वार्थसिद्धेऽपि जघन्या दिगम्बर सूत्रपाठमें "लोकान्तिकानामष्टी सागरोपमाणि हाकिमयपीता नवटा मा मपाम" यह एक विशेषसूत्र लोकान्तिक देवोंकी प्रायुके प्रायेण । आगमस्तावदयम-" स्पष्ट निर्देशको लिये हुए है।
अर्थात्-विजयादिक चार विमानोमे जघन्य स्थिति (६) चौथ अध्यायम, देवाकी जघन्य स्थितिका वर्णन इकत्तीम सागरकी-उत्कृष्ट स्थिति बत्तीय सागरकी है और करते हुए, जो ४२ वा सूत्र दिया है वह अपने भाष्य-
सर्वार्थमिद में अजघन्योकृष्ट स्थिति तेतीस सागरकी है। परंतु
जा सहित इस प्रकार है
भाष्यकारने तो सर्वार्थ सिद्ध में जघन्यस्थिति बत्तीम सागरकी "परतः परतः पूर्वा पूर्वानन्तरा ॥४२॥"
बतलाई है ,हमे नहीं मालूम किस अभिप्रायसे उन्होंने ऐसा कथन भाज्य-"माहेन्द्रात्परतः पूर्वा पराप्नन्तरा जयन्या किया है। श्रागम तो यह है-(इसके बाद प्रज्ञापनासूत्र स्थितिर्भवति । तद्यथा । माहेन्द्र परा स्थितिविशेषाधि- का वह वाक्य दिया है जो ऊपर उद्धृत किया गया है)। कानि सप्तसागरोपमाणि सा ब्रह्मलोके जघन्या भवति ।
(७) छटे अध्यायमे तीर्थकर प्रकृति नामकर्मके ब्रह्मलोके दशसागरोपमाणि परा स्थितिः सा लान्तके
श्रास्रव-कारणोंको बतलाते हुए जो सूत्र दिया है वह इस जघन्या । एवमासर्वार्थसिद्धादिति ।"
प्रकार हैयहाँ माहेन्द्र स्वर्गसे बादके वैमानिक देवीकी स्थिति "दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलवतेप्वनतिका वर्णन करते हुए यह नियम दिया है कि अगले अगले चारोभीक्षणं ज्ञानोपयोगमंवेगो शक्तितम्त्याग-तपसी विमानों में वह स्थिति जघन्य है, जो पूर्व पूर्वके विमानों में संघसाधुममाधियावृत्यकरणमहदाचार्य - बहश्रत-प्रवउत्कृष्ट कही गई है, और इस नियमको सर्वार्थसिद्ध विमान. चनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्गिप्रभावना प्रवचनवत्सपर्यन्त लगानेका श्रादेश दिया गया है। इस नियम और लत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ॥ २३॥" श्रादेशके अनुसार सर्वार्थसिद्ध विमानके देवोंकी जघन्य- यह सूत्र दिगम्बर सूत्रपाटके बिल्कुल समकक्ष हैस्थिति बत्तीस सागरकी और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर मात्रसाधुसमाधिसे पहले यहाँ 'संघ' शब्द बढ़ा हुआ की ठहरती है । परन्तु श्रागममे सर्वार्थसिद्ध के देवोंकी स्थिति है, जिससे अर्थमे कोई विशेष भेद उत्पन्न नहीं होता। एक ही प्रकारकी बतलाई है-उसमें जघन्य उत्कृष्टका कोई दि. सूत्रपाठमें इसका नम्बर २४ है। इसमें सोलह कारणों भेद नहीं है, और वह स्थिति तेतीस सागरकी ही है, जैसा का निर्देश है और वे हैं- दर्शनविशुद्धि, २ विनयकि श्वे. आगमके निम्न वाक्योंसे प्रकट है
सम्पन्नता, ३ शीलवतानतिचार, ४ अभीषण ज्ञानोपयोग, "सव्वसिद्धदेवाणं भते ! केवतियं कालं ठिई ५ अभीषणसंवेग, ६ यथाशक्ति त्याग, ७ यथाशक्ति तप, पएणता ? गोयमा! अजहएणुक्कोसेणं तित्तीसं साग- ८ संघसाधुसमाधि, १ वैयावृत्यकरण, १० अर्हद्भक्ति, रोक्माई ठिई पण्णत्ता।" -प्रज्ञा०प०४ सू० १०२ ११ प्राचार्यभक्ति, १२ बहुश्रुतभक्ति, १३ प्रवचनभक्ति,