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________________ किरण ५ ] (३) प्रथम अध्यायका आठवाँ सूत्र इस प्रकार हैसत्संख्या क्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावात्पबहुत्वैश्च । इसमे सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्प-बहुव इन श्रा श्रनुयोगद्वारोंके द्वारा विस्तार से अधिगम होना बतलाया है; जैसा कि भाष्य के निम्न श्रंश से भी प्रकट है श्० तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जांज "सत् संख्या क्षेत्रं स्पर्शनं कालः अन्तरं भावः अल्पबहुत्वमित्येतैश्च सद्भूतपदप्ररूपणादिभिरप्राभिरनुयोगद्वारः सर्वभावानां (तत्त्वानां ) विकल्पशो विस्तराधिगमो भवति ।" परन्तु श्वेताम्बर श्रागममे सत् यदि श्रनुयोगद्वारोंकी संख्या नव मानी है— भाग' नामका एक अनुयोगद्वा उसमे और है; जैसा कि श्रनुयोगद्वारसूत्र के निम्न वाक्यसे प्रकट है, जिसे उपाध्याय मुनि श्रात्मारामजीने भी अपने उक्त 'तत्वार्थसूत्र-जैनागमसमन्वय' में उद्धृत किया है"संकित गमे ? नवविहे पत्त े । तं जहासंतपय परुवण्या १ पमाणं च २ वित्त ३ फुमरा य ४ कालो य ५ अंतरं ६ भाग ७ भाव ८ अप्पाचहुं ६ चैत्र ।" (अनु० सूत्र ८०) इससे स्पष्ट है कि उक्त सूत्र और भाष्यका कथन श्वेताम्बर श्रागमके साथ संगत नहीं हैं। वास्तवमे यह दिगम्बरसूत्र है, दिगम्बरसूत्र पाठ भी इसी तरहसे स्थित है और इसका श्राधार षट्खण्डागम के प्रथमखण्ड जीवहाणके निम्न तीन सूत्र हैं "एदेसि चोदसहं जीवसमासां परुवदाए तत्थ इमाणि श्रट्ट अणियोगद्दाराणि गायत्र्वाणि भवति || ५ || तंजहा ॥ ६ ॥ संतपरुवणा दव्यपमारगागमो वेणुगमो फोसणागमो कालागमो अंतरागमो भावानुगमो अप्पा बहुगागमो चेदि ॥ ७ ॥ षट्खण्डागममे और भी ऐसे अनेक सूत्र है जिनमे इन सत् श्रादि श्राठ अनुयोगद्वारोका समर्थन होता है । (४) श्वे० सूत्रपाठके द्वितीय अध्याय मे 'निर्वृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्' नामका जो १७ वां सूत्र है उसके भाष्य में 'उपकरणं वाह्याभ्यन्तरं च' इस वाक्यके द्वारा उपकरण के बाह्य और अभ्यन्तर ऐसे दो भेद किये गये हैं; १७५ परन्तु श्वे० श्रागममें उपकरण के ये दो भेद नहीं माने गये हैं । इसी सिद्धसेन गणी अपनी टीकामें लिखते हैं "आगमे तु नास्ति कश्चिदन्तर्बहिर्भेद उपकरणस्येयाचार्यस्यैव कुतोऽपि सम्प्रदाय इति । " अर्थात् श्रागममें तो उपकरणका कोई अन्तर - बाह्यभेद नही है । श्राचार्यका ही यह कहीसे भी कोई सम्प्रदाय है— भापकारने ही किसी सम्प्रदाय विशेषकी मान्यतापरसे इसे अंगीकार किया है । इससे दो बातें स्पष्ट हैं—एक तो यह कि भाष्यका उक्त वाक्य श्वे० श्रागमके साथ संगत नहीं है, और दूसरी यह कि भाष्यकारने दूसरे सम्प्रदायकी बातको अपनाया है । वह दूसरा (श्वेताम्बरभिन्न) सम्प्रदाय दिगम्बर हो सकता हैं । दिगम्बर सम्प्रदायमे सर्वत्र उपकरण के दो भेद माने भी गये हैं । (५) चौथे अध्याय में लोकान्तिक देवोंका निवासस्थान 'ब्रह्मलोक' नामका पाँचवों स्वर्ग बतलाया गया है। और 'ब्रह्मलां कालया लोकान्तिकाः' इस २५ वें सूत्रके निम्न भाग्यमे यह स्पष्ट निर्देश किया गया है कि ब्रह्मलोक में रहने वाले ही लोकान्तिक होते हैं— अन्य स्वर्गो में या उनसे परे मैवेयकादिमं लोकान्तिक नहीं होते "ब्रह्मलोकालया एव लोकान्तिका भवन्ति नान्यकल्पेषु नापि परतः ।" ब्रह्मलोकमे रहने वाले देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति दस सागरकी और जघन्य स्थिति सातसागरमे कुछ अधिककी बतलाई गई, जैसा कि सूत्र नं० ३७ और ४२ श्रौर उनके निम्न भाष्यांशोंसे प्रकट है "ब्रह्मलोके त्रिभिरधिकानि सप्तदशेत्यर्थः ।" "माहेन्द्र परा स्थितिर्विशेषाधिकानि सप्त सागरोपमाणि सा ब्रह्मलोक जघन्या भवति । ब्रह्मलोके दशमागमाणि परा स्थितिः सा लान्तके जघन्या ।" इससे स्पष्ट है कि सूत्र तथा भाप्यके अनुसार लोकान्तिक देवोंकी उत्कृष्ट श्रायु दस सागरकी और जघन्य आयु मान सागरमे कुछ अधिककी होती है, क्यों कि लोकान्तिक देवकी श्रायुका श्रलग निर्देश करने वाला कोई विशेष सूत्र भी श्वे० सूत्रपाठ नहीं है । परन्तु श्वे० आगममें लोकान्तिक देवोंकी उत्कृष्ट और जघन्य दोनों ही प्रकारकी श्रायु
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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