SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६० अनेकान्त [ ५ हुआ चलेगा, दिन-मित वचन बोलेगा ज्यादा बकबाद नहीं करेगा। गरज़ यह कि जैनसा अपनी तमाम प्रवृत्ति सावधानीसे करता है यह सब अहिंसा के लिये हिंसा की उपासना के लिये 'परमब्रह्मको प्राप्त करने के लिये ' ' अहिंसा भूतानां जगत विदितं ब्रह्मपरमं' इस समन्तभद्रोक 1 को हासिल करने के लिये। इस तरह जैनसाधु अपने जीवनको पूर्ण श्रहिसामय बनाता हुआ, श्रहिंसाकी साधना करता हुआ, जीवनको अहिंसाजन्य अनुपम शांति प्रदान करता हुआ, विकारी पुङ्गलमे अपना नाता तोडता हुआ, कर्मबन्धन काटता हुआ चहियाने ही परमझमें टीशाश्वतानन्दमें डी- निम होजाता है— जीन होजाता हैसदा के लिये हमेशा के लिये नतकाल के लिये फिर उसे संसारका चक्कर नहीं लगाना पड़ता। यह अजर, अमर, व्यविनाशी होजाता है। सिद्ध एव कृकृय बन जाता है यह सब अहिंशाके द्वारा ही शान नियाद-। वीर-शासनकी जड - श्रधार र विकास अहिंसा ही है । वर्तमानमे हमारा जैनमाज इस अहिंसा-तब को कुछ भूल या गया है इसी लिये जैनेतर लोग उसके वाह्याचारको देखकर जैनी श्रहिंसा' 'वीर श्रहिंसा पर कायरताका कलंक मढते हुये पाये जाते हैं। क्या ही अच्छा हो, जैनी लोग अपने व्यवहारये चहिंसाको व्यावहारिक धर्म बनाये रखनेमे सच्चे प्रथम 'जैनी' बनें, श्रात्मबल पुष्ट करें, साहसी, बीर बनें जितेन्द्रिय होवे उनकी अहिंसा केव चिवटी - खटमल, जे यादि की रक्षा तक ही सीमित न हो, जिससे दूसरे लोग हमारे दम्भपूर्ण व्यवहार-निरा अहिंसा के व्यवहारको देखकर वीर प्रभुकी महती देन अहिंसापर कलंक न मढ सके 1 1 में आपस में हिलमिल जाते हैं। क्रोध दम्भ, द्वेष गर्व लोभ आदि ये सब हिंसाकी वृतियां है ये सच्चे हिंसक के पास नहीं फटकती हैं अहिंसको कमी भय नहीं होता, यह निर्भीकता के साथ उपस्थित परिस्थितिका सामना करता है, कायरता कभी पलायन नहीं करता। अहिंसा कायका धर्म नही है वह तो वीरोंका धर्म है । कायरता का हिंसाके साथ और वीरताका अहिंसाके साथ सम्बन्ध 售 1 शारीरिक बलका नाम वीरता नही, आत्मबलका नाम वीरता है । जिसका जितना अधिक श्रात्मबल विकसित होगा वह उतना ही अधिक वीर और अहिंसक होगा । शारीरिक बल कदाचित ही सफल होता देखा गया है. लेकिन सूखी हड्डियों वाला भी आभवल हमेशा विजयी और अमोघ रहा है । श्रतः श्रहिसा पर कायरताका लांछन लगाना निराधार है। भगवान् महावर ने वह अहिसा दो प्रकारको वर्णित की है- १ गृहस्थकी श्रहिंसा, २ साधुकी हिंसा । (1) गृहस्थ चहिया गृहस्थ चार तरह की हिंसाथीआरम्भी, उद्योगी, विरोधी और संकल्पीमें केवल संकल्पी हिंसाका त्यागी होता है, बाफीकी तीन सरहकी तीन तरहको हिंसाका लागी वह नहीं होता । इसका मतलब यह नहीं है कि वह इन तीन तरहकी हिंसाओं में सावधान बन कर प्रवृत्त रहता है । नहीं, आत्मरक्षा, जीवननिर्वाह यादिके लिये जितनी अनिवार्य हिंसा होगी वह उसे करनी पड़ती है, फिर भी वह अपनी प्रवृत्ति हमेशा सावधानी से करेगा। उसका व्यवहार हमेशा नैतिक होगा। यही गृहस्थधर्म है, अन्य क्रियाएँ श्राचरण तो इसीके पालनके दृष्टिविन्दु हैं । २- साधु हिंसा—सब प्रकारकी हिंसाओंके स्यागमें से उदय होती है, उसकी श्रहिंसामें कोई विकल्प नहीं होता । वह अपने जीवनको सुवर्णके समान निर्मल बनानेके लिये उपद्रव, उपसर्गों को सहनशीलता के साथ महन करता है। निन्दा करने वालोंपर रूट नहीं होता और स्तुति करने बालोंपर प्रसन्न नहीं होता । वह सब पर साम्यवृत्ति रखता है। अपने को पूर्णसावधान रखता है। तामसी और राजसी वृत्तियोंसे अपने आपको बचाये रखता है। मार्ग चलेगा तो चार कदम ज़मीन देखकर चलेगा, जीव-जन्तुओं को बचाता -- - २ साम्यवाद -- यह अहिंसाका ही अवान्तर सिद्धान्त है, लेकिन इस सिद्धान्तकी हमारे जीवन में श्रहिंसाकी ही भाँति अपनाये जानेकी आवश्यकता होनेसे 'श्रहिंसावाद' के समकक्ष इसकी गणना करना उपयुक्त है; क्योंकि भगवान् वीरके शासनमें सबके साथ साम्य-भाव- सद्भावना के साथ व्यवहार करनेका उपदेश है, अनुचित राग और द्वेष का त्यागना, दूसरोके साथ अन्याय तथा अत्याचारका बर्ताव नहीं करना; न्यायपूर्वक ही अपनी जीविका सम्पादित करना, दूसरोंके अधिकारोंको रूप नहीं करना
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy