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किरण ५ ]
दूसरोंकी आजीविका पर नुकसान नहीं पहुँचाना, उनको अपने जैसा स्वतन्त्र और सुखी रहनेका अधिकारी समझकर उनके साथ 'वसुधैव कुटुम्बकम्' यथायोग्य भाईचारे का व्यवहार करना, उनके उत्कर्षमें सहायक होना, उनका कभी अपकर्ष नही सोचना, जीवनोपयोगी सामग्रीको स्वयं उचित और श्रावश्यक रखना और दूसरोंको रखने देना संग्रहानेकी वृत्तिका परित्याग करना ही 'साम्यवाद' का लक्ष्य है— साम्यवादकी शिक्षाका मुख्य उद्देश्य है । यदि आज विश्वमे वीरप्रभुकी यह साम्यवाद की शिक्षा प्रसृत हो जाये तो सारा विश्व सुखी और शांतिपूर्ण होजाय ।
प्राप्त
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३ स्याद्वाद अथवा श्रनेकान्तवाद - इसको जन्म देनेका महान् श्रेय वीरशासनको ही है । प्रत्येक वस्तुके खरे और खोटेकी अनेकान्त दृष्टि- स्याद्वाद की कसोटीपर ही की जाती है। चकि वस्तु स्वयं अनेकान्तात्मक है उसको वैसा माननेमें ही वस्तुतश्व की व्यवस्था होती है । स्याद्वाद के प्रभावसे वस्तुके स्वरूप निर्णय में पूरा २ प्रकाश होता है और सकल दुर्नयो एवं मिथ्या एकान्तोंका अंत हो जाता है तथा समन्ययका एक महानतम प्रशस्त मार्ग मिल जाता है। कुछ जैनेतर विचारकोंने स्याद्वादको ठीक तरह से नही समझा। इसीसे उन्होंने स्याद्वाद के खंडन के लिये कुछ दुषण दिये हैं। शंकराचार्य एकस्मिन्हारा एक जगह दो विरोधी धर्म नही बन सकते हैं। यह कहकर स्याद्वाद में विरोध दूषण दिया है। दिन्ही विद्वानोने इसे संशयवाद, छलवाद कह दिया है, किन्तु विचारनेपर उसमे इस प्रकारके कोई भी दूषण नही आते हैं । स्याद्वाद का प्रयोजन है यथावत वस्तुतत्वका ज्ञान कराना, उसकी ठीक तरहमे व्यवस्था करना, सब ओरसे देखना और स्याद्वादका अर्थ है क्यंचिनवाद रहियाद अपेक्षवाद, सर्वथा एकान्तका त्याग, भिन्न भिन्न पहलुओमे स्वरूप का निरूपण, मुख्य और मीराकी दृष्टिये पदार्थका विचार स्याद्वाद मे जो स्थान शब्द है उसका अर्थ ही यही है कि किसी एक अपेक्षा—सब प्रकार से नहीं - एक दृष्टिमे― है ।
+ देखा ग्राप्तभीमासा का० १०४ देखो नमीमासा का० १०३
वीरशासन और उसका महत्त्व
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'स्यात्' शब्दका अर्थ 'शायद नही है जैसा कि 'भारतीय दर्शनशास्त्रका इतिहास' के लेखक विद्वान् ने भी समझा है। वे अपनी इस पुस्तकमे लिखते हैं कि "स्याद्वादका वाध्यार्थ है 'शायदवाद' अंग्रेजीमें इसे 'प्रोबेबिल्ज़िम' कह सकते हैं। अपने अतिरंजित रूपसे स्वाहा संदेहवादका भाई है।" इसपर और चागे पीछे के जैनदर्शन सम्बन्धी उनके निबन्ध पर आलोचनात्मक स्वतंत्र लेख ही लिखा जाना योग्य है । यहां तो केवल स्वाद्वादको 'संवाद' का भाई समझने के विचारका चिंतन किया जायगा। उक्त लेखक यदि किसी जैन विद्वानसे 'स्याद्वाद' के 'स्यात' शब्द के अर्थको निबन्ध लिखने के पहिले अवगत कर लेते तो इतनी स्थूल गलती उन जैयभरतीयदर्शनशास्त्रका अपनेकी अधिकारी विज्ञान समझने वालोंसे न होती । जैनविचारकोंने स्थान' शब्दका अर्थ जो मैं ऊपर कर श्राया है, वह बताया है। देवराज व्यक्ति में अनेक सम्बन्ध विद्यमान है— किसीका मामा है तो किसी का भानजा, किसीका पिता है तो किसीका पुत्र, इस तरह उससे कई सम्बन्ध मौजूद हैं मामा अपने भानजेकी अपेक्षा पिता अपने पुत्रकी अपेक्षा भानजा अपने मामाकी अपेक्षा, पुत्र अपने पिताकी अपेक्षा है; इस प्रकार देवराजमें पितृत्व, पुत्रव, मातुलत्व स्वस्त्रीयत्व श्रादि धर्म निश्चित रूप ही है—संदिग्ध नहीं हैं और वे हर समय विद्यमान हैं । 'पिता' कहे जानेके समय पुत्रपना उनमेसे भाग नही जाता है-- सिर्फ गौण होकर रहता है । इसी तरह जब उन का भानजा उन्हें 'मामा-मामा' कहता है उस समय वे अपने मामाकी अपेक्षा भानजे नही मिट जाते' उस समय भानजा • पना उनमें गौणमात्र होकर रहता है । स्याद्वाद इस तरह से वस्तुधर्मोकी गुन्थियोंको सुलझाता है उनका यथावत निश्चय कराता है। -- स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल भावकी अपेक्षासे ही वस्तु 'मत' अस्तित्ववान है और परद्रव्य क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा ही वस्तु 'सत्' - नास्तित्ववान है श्रादि सात भट्ठों द्वारा ग्रहण करने योग्य और छोडने योग्य ( गौण कर देने योग्य) पदार्थोका स्याद्वाद हस्तामलकवत् निर्णय करा देता है। सदेह या भ्रमको वह पैदा नहीं
● देखा, भारतीय दर्शनशास्त्रका इतिहास' पृ० १२५ देखो ग्राप्तमीमासा का० १५