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________________ १६२ श्रनेकान्त करता है। बल्कि स्याद्वादका श्राश्रय लिये बिना वस्तुतश्व का यथातथ्य निर्णय हो ही नहीं सकता है । अतः स्याद्वाद को संदेहवाद समझना नितांत श्रसाधारण भूल है । भिन्न दो अपेक्षाश्रमे विरोधी सरीखे दीख रहे (विरोधी नहीं) दो धर्मो के एक जगह रहनेमें कुछ भी विरोध नहीं है । जहा पुस्तक अपनी अपेक्षा श्रस्तिस्वधर्म वाली है वहां अन्य पदार्थों की अपेक्षा नास्तित्व धर्मवाली भी है, पर नहीं हो सकता निषेधके बिना स्वस्वरूपास्तिय प्रति है । श्रुत: यह स्पष्ट है कि स्याद्वाद में न विरोध है और न अन्य कोई दूषण, वह तो वस्तुनिर्णयका - तत्वज्ञानका श्रद्वितीय श्रमोघ शस्त्र है, सबल साधन है । वस्तु चूंकि अनेक धर्मात्मक है और उसका व्यवस्थापक स्याद्वाद है इसलिये स्याद्वादको ही अनेकान्तवाद भी कहते हैं। किन्तु 'अनेकान्त' और 'स्याद्वाद में वाच्य-वाचकसंबंध है । [ वर्ष ५ । कर्मबंध करता है इन सभी बातों का चिंतन किया गया है। कर्मवाद हमे शिक्षा मिलती है कि हम स्वयं जैसे उड सकते हैं और स्वयं ही नीचे गिर सकते हैं । 1 ४] कर्मवाद है है उसका जीवके साथ अनादिकासिक सम्बन्ध है की बह ही जीव पराधीन और सुखदुखका अनुभव कर्ता है। कर्मसे श्रनेक पर्यायोंको धारण करके चतुर्गति संसार में घूमता है । कभी ऊंचा बन जाता है तो कभी नीचा, दरिद्र होता है तो कभी श्रमीर, मूर्ख होता है तो कभी विद्वान् अंधा होता है तो कभी बहिरा, लंगड़ा होता है तो कभी बीना, इस तरह शुभाशुभ कर्मों की बदौलत दुनियाके रंगमंच पर नटकी तरह अनेक भेषीको धारण करता है— श्रनगिनत पर्यायों में उपजता और मरता है। यह सब कर्म की बिडम्बना कर्म की प्रपञ्चना है। वीरशासनमे कर्मके मूल और उत्तरभेद और उनके भी भेदका बहुत ही सुन्दर, सूक्ष्म, विशद विवेचन किया गया है। बंध, बंधक, बन्ध्य और बन्धनीय तत्वों पर "हरा विचार किया गया है। जीव कैसे और कब शासन जीवादि सात तत्वों, सम्यकदर्शन, सम्यज्ञान सम्पातिरूप मोहमार्ग और प्रमाण, नय, निक्षेप श्रादि उपायतत्वों का भी बहुत ही सम्बद्ध एवं संगत, विशद व्याख्यान किया गया है। प्रमाणके दो भेद करके उन्हींमें अन्य सब प्रमाणों के अन्तर्भावकी विभावना कितने सुन्दर एवं युक्तिपूर्ण ढंग की गई है। वह एक निष्पक्ष विचारक को आकर्षित किये बिना नही रहती है । नयवाद तो जैनदर्शनकी श्रन्यतम महत्वपूर्ण दैन है । चस्तुके श्रशज्ञानको नव कहते हैं ये नए अनेक हैं, वस्तुके भिन्न भिन्न अंशोंको ग्रहण करने वाले नय ही हैं। ज्ञाताकी हमेशा प्रमाण- दृष्टि नहीं रहती है कभी उसका वस्तुके किसी ग्वाम धर्मको ही जाननेका अभिप्राय होता है उस समय उसकी नय-दृष्टि होती है और इसीलिये जाता मियां भी दर्शन नय माना है। चूंकि वक्ताको वचन प्रवृत्ति भी क्रमशः होती है -- वचनाद्वारा वह एक एक अंशका ही प्रतिवचन कर सकता है इसलिये बक्ताके वचन व्यवहारको भी जैनदर्शन में 'नय' माना है । श्रतएव ज्ञानात्मक और वचनात्मकरूप से अथवा ज्ञाननय और शब्दनयके भेदसे नय वर्णित हैं । इस तरह वीरशासन अधिक वैज्ञानिक एवं तात्त्विक है । उसके अहिंसा, स्पाहार जैसे पश्यत्रिय सिद्धान्तों उसकी उपयोगिता एवं आवश्यकता भी अधिक बढ़ जाती है। वीरशासन के अनुयायी हम जैनोंका परम कर्तव्य है कि भगवान् वीरके द्वारा उपदेशित उनके 'सर्वोदय तीर्थ' को विश्व में चमकृत करें और उनके पवित्र सिद्धान्तोका हम स्वयं ठीक तरह पालन करें तथा दूसरोंको पालन करावे, और उनके शासनका प्रसार करें।
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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