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________________ श्रमण-संस्कृति और भाषा [ लग्बक-५० महेन्द्रकुमार जैन, न्यायाचार्य ] श्रमण-संस्कृतिका आधार भ० पार्श्वनाथके जमानेसे कहते हैं। और उनका यह स्पष्ट हम भारतीय संस्कृतियोंको मुख्यरूपसे तीन स्थूल मत है कि अहिसा, जो श्रमण संस्कृतिका मूल प्राधार है, भागों में बाँट सकते हैं । पहिला विभाग तो वह जिसमें वेद पार्श्वनाथके समयये प्राविभूत हुई है। जैनियोंकी अहिसा. को प्रमाण मानने वालों का वर्ग अाता है, जिसे हम 'चैदिक- जिसमे मनुष्योंके साथ ही साथ पशु-पक्षी, यहां तक कि संस्कृति' कहेंगे । यहाँ यह विचार प्रस्तुत नहीं है कि वेद वृक्ष श्रादि उद्विज जन्तुओंके संरक्षण पर पर्याप्त भार दिया ईश्वरने बनाया है अथवा यह स्वयं सिद्ध अपौरुषेय है; गया है, बहुत पुरानी है। इसका एक इतिहाम्प-पुराण-सिद्ध किन्तु धर्मके विषयमे वेदका निर्बाध अधिकार मानना ही उदाहरण यह है कि भ० नेमिनाथने, जो जैनियोंके २२वे इस संस्कृतिकी असाधारण विशेषता है। दूसरे विभागमे तीर्थकर थे तथा कर्मवीर कृष्णके चचेरे भाई थे, अपनी वेदकी प्रमाणताका खंडन करनेके माथ ही साथ परलोक बगनमें पाए हुए क्षत्रियकुमारोके भोजन के लिए होने वाले अामा श्रादि अतीन्द्रिय पदार्थोकी सत्ताका लोप करने वाले पशुवधकी श्राशकासे विवाह ही नहीं कराया था। और वे भौतिक जीवनवादी चार्वाक तथा तत्त्वोपप्लववादी पाते हैं। पशुओंको मुन कर योगसाधन करने गिरनार पर्वतपर चले ये लोग वैदिक-अग्निहोत्र श्रादि क्रियाकाण्डोको हिजोकी गये थे। अस्तु । श्राजीविकाके साधनसे अधिक कुछ नहीं मानते । इसे हम श्रमण-संस्कृति और वैदिकसंस्कृनिका महत्त्वका मतभेद पाणिनीयकी परिभाषाके अनुसार 'नास्तिकसस्कृनि'या भौतिक- यह था कि धर्म तथा धर्मके साधनोके विषयमे वेदको संस्कृति' कह सकते हैं। तीसरी संस्कृति वह है जो लोक आखिरी प्रमाण मानना या अपने साक्षात्कार-अनुभवको ? परलोक, भृतीसे भिन्न स्वतन्त्र जीवनतत्व, निर्वाग्ग श्रादि वैदिक संस्कृतिका स्पष्ट मत था कि धर्म और उसके नियमों अतीन्द्रिय पदार्थोको स्वीकार करके भी वेदकी प्रमाणताका तथा का साक्षाकार या अनुभव किसी भी प्राणीको नही हो वैदिक याज्ञिक क्रियाकाण्डोका तात्त्विक और व्यावहारिक सकता । धर्मके विषयमें तो जो वेदमे लिग्खा गया है वही विरोध करती है। यह तीसरी सस्कृति है 'श्रमण-सस्कृति'। अन्तिम सत्य है। और इसी श्राधारसे वैदिक यज्ञोका, इसमें जैन और बौद्ध, समानरूपसे सम्मिलित हैं। यद्यपि जिनम गोमेध, अश्वमेध और नरमेध जैसे अतिहिमक यज्ञ जैन-सस्कृति ऋषभदेवके समयसे या उससे भी पूर्वसे बरा- भी शामिल थे, वेदके वचनोंये प्रचार किया जाता था। बर चली आती है ऐसी जैन शास्त्रोकी मान्यता है और बौद्ध. इनके मतसे कोई भी मनुष्य पूर्णज्ञानी और वीतरागी नही ग्रन्थों में बौद्धसंस्कृतिको भी इसी तरह अनादि स्वीकार हो सकता, अतीन्द्रिय धर्म आदि पदार्थोंका माताकार किया गया है पर हम यहा पर जैनसंस्कृतिका भ० महावीर किसी भी महर्षिको नहीं हो सकता । अतः धर्म आदि के समयमे तथा बौद्धसंस्कृतिका भ०बुद्धके समयमे ही अतीन्द्रिय पदार्थोकी व्यवस्थाके लिए वेदकी आज्ञा अन्तिम विचार करेंगे। इन संस्कृतियोंका जो कुछ रूप श्राज जैन है। इसी प्राशयये वादरायण साबर श्रादि ऋषियोंने वाङ्मय या बौद्ध पिटकोंमें मिलता है उसका सीधा स्रोत लिखा है कि-"चोदनालक्षणोऽर्थः धर्मः" "धर्मे चोदनैव महावीर और कुद्धसे निकलता है। भ. महावीरके २५० प्रमाणम्" अर्थात् वेदप्रणीन ही धर्म है, तथा धर्ममें वेद वर्ष पहले जैनियोके २३वें तीथंकर भ. पार्श्वनाथ हुए थे। ही प्रमाण हैं। उसमें तर्ककी कोई श्रावश्यकता नहीं है। प्राचार्य धर्मानन्द कोसाम्बी श्रमण संस्कृतिका आदिस्रोत "तर्काप्रतिष्ठानान्" यह ब्रह्मसूत्र तर्ककी अप्रतिष्ठा स्पष्ट शब्दों
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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