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अनेकान
मेघोषित कर रहा है। वेदको भी भी इन्हें इसीलिये मानना पड़ा कि ये पुरुषके अन्तिम ज्ञानविकास और बीत रागताको असम्भव ही मानते हैं।
परन्तु श्रमण-संस्कृति इस वेदकी दुहाई देकर धर्म के नाम पर होने वाले हिंसाकाण्ड तथा अन्य ऐसे ही क्रियाकाडोंसे ऊब रही थी। इसे मनुष्यकी बुद्धि पर वेदका ताला लगाना श्रसह्य हो उठा । वह इस वैदिक याज्ञिक हिंसाका न केवल व्यावहारिक ही विरोध करना चाहती थी किन्तु उसे इसका तात्त्विक विरोध करना भी इष्ट था । इसीलिए श्रमणसंस्कृतिके सन्देशवाहक महावीर और बुद्ध ने धर्मके विषय में वेदाशाका विरोध किया और बताया कि मनुष्य अपनी साधनाके द्वारा धर्मका और धर्मके नियमों का साक्षात्कार कर सकता है। देशकाल श्रादिकी परिस्थिति के अनुसार अपने अनुभवके श्राधार पर उनमें हेर-फेर कर सकता है। अमुक वेदमे ऐसा लिखा है इसीलिये अपने अनुभवकी हत्या नही की जा सकती। मनुष्य अपनी साधनासे अपने ज्ञानका चरम विकास कर सकता है और उससे धर्म जैसे श्रतीन्द्रिय पदार्थोका साक्षात्कार कर सकता है । वह पूर्ण वीतरागी भी हो सकता है। इसीलिए महावीर और बुद्धने प्रथम ही अपनी तपःसाधना से कैवल्य या बोधिको प्राप्त किया। पीछे अपने द्वारा अनुभूत धर्ममार्गको जनता हिसके लिए प्रकाशित किया। उन्होंने स्पष्ट शब्दों मे कहा कि
"परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो नत्वादरात्" अर्थात्-मि हमारे प्रति आदर और अदाका भाव होनेके कारण ही हमारे वचनोंको श्रख मूंदकर नहीं मानना, किन्तु उनकी बन्दी तरह परीक्षा करके ही उन्हें ग्रहण करना। इस तरह जहां वैदिक संस्कृतिवेदा प्राधान्य था वहां श्रमण-संस्कृतिने धर्म और उसके नियमों के विषयमे मनुष्यके अनुभवको प्रधान माना । इस संस्कृति मे 'बाबाचा प्रमाणाम्' जैसे अन्धश्रद्धाको बढ़ाने वाले नियमों का सख्त विरोध किया गया और बताया गया कि प्रत्येक मनुष्य अपनी साधनासे अपना इतना विकास कर सकता है कि उसे धर्मका साक्षात्कार भी हो सकता है । इन संस्कृतियो मौलिक मतभेद ईसाकी सातवी शताब्दीके वि भट्टकुमारिल और धर्मकीर्तिके वाक्यों में
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अत्यन्त स्पष्टतासे उत्तर आया हैवैदिक विद्वान् कुमारिल कहते हैं किम जो सर्वशता का निषेध कर रहे हैं उसका तात्पर्य यह है कि कोई भी मनुष्य धर्मज्ञ नही हो सकता । धर्ममें तो वेद ही अन्तिम प्रमाण है । धर्मके अतिरिक्त यदि वह संसारके अन्य समस्त कीड़े मकौडे श्रादि पदार्थोंको जानना चाहता है तो खुशीसे जाने, पर धर्ममें तो वेदको ही प्रमाण मानना होगा, वह धर्मका मात्रात् अनुभव नही कर सकता ।
श्रमण विद्वान् धर्मकीति ठीक इससे विपरीत कहते हैं कि मनुष्य संसार के समस्त पदार्थो को जानता है या नही यह कोई महत्त्वकी बात नहीं है। हमे तो यह सिद्ध करना है कि वह अपने इष्ट तत्व-धर्म का साक्षात्कार कर सकता है या नहीं ? दुनियाभर के कीड़े-मकौड़े श्रादिको संख्याके ज्ञानका भला जीवनमें क्या उपयोग हो सकता है ? हमे तो यह देखना है कि वह अपने अनुष्य धर्मका साक्षात अनुभव कर रहा है या नही ? उसका धर्म अनुभव के आधार ही निकलना चाहिए। वह द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव की परिस्थिति के अनुसार श्रात्मसंशोधनके नियमोको स्वयं साक्षात्कार कर सकता है । अतः हम तो मनुष्यको धर्मज्ञ बनाना चाहते हैं । धर्म जैसी जीवनकी महत्त्वपूर्ण वस्तुको वेदके सुपुर्द नही किया जा सकता । श्रादि । यही कारण है कि भ्रमणसंस्कृतिके अने अपने जीवन उत्तरे हुए अपने द्वारा अनुभूत श्रात्मशोधन के नियमोंका जनताको उपदेश दिया है। उन्होने हिंसा श्रादि तत्वोंको किसी पुस्तकमे नही पढ़ा किन्तु अपने जीवनमे पढ़ा। इनका जीवन अहिसा इतना तादात्म्य हो गया था कि इन्हें चिरकालीन वैदिक परम्पराका स्पष्ट विरोध करना पड़ा। उस समय इन्हे नास्तिक कहा गया और न जाने क्या २ इनके साथ व्यवहार हुआ । श्रस्तु । अब मैं इस संक्षिप्त भूमिका के बाद भाषाके प्रश्न पर श्रमण संस्कृतिका दृष्टिकोण उपस्थित करता है।
१ "धर्मजत्वनिषेधस्तु केवलोऽत्रोपयुज्यते ।
समानस्तु पुरुषः केन वार्यते ॥” (तसंग्रह में उन २ "सर्व पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्ट ं तु पश्यतु । कीट संख्यापरिज्ञानं तस्य नः क्वोपयुज्यते ॥ तस्मादनुष्ठयगतं ज्ञानमस्य विचार्यताम् ॥” (प्रमाणवार्तिक)